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________________ २० गाथा समयसार यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी। बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी॥ वर्णादिभाव संसारी जीवों के ही होते हैं, मुक्त जीवों के नहीं। यदि तुम ऐसा मानोगे कि ये वर्णादिभाव जीव ही हैं तो तुम्हारे मत में जीव और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। ___ यदि तुम ऐसा मानो कि संसारी जीव के ही वर्णादिक होते हैं; इसकारण संसारी जीव तो रूपी हो ही गये, किन्तु रूपित्व लक्षण तो पुद्गलद्रव्य का है। अतः हे मूढ़मति ! पुद्गलद्रव्य ही जीव कहलाया। अकेले संसारावस्था में ही नहीं, अपितु निर्वाण प्राप्त होने पर भी पुद्गल ही जीवत्व को प्राप्त हुआ। (६५-६६) एक्कंच दोण्णि तिण्णिय चत्तारिय पंच इन्दियाजीवा। बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।। एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं। पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कह भण्णदे जीवो। एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-बादर आदि सब ॥ इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी॥ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त – ये नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं। इन पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों के कारणरूप होकर रचित जीवस्थानों को जीव कैसे कहा जा सकता है ? (६७) पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहमा बादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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