SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० गुरु-शिष्य रहा हूँ। आपका काम हो चुका हो, तो वहाँ पर हर्ज नहीं है । उस एक ही जगह पर रहे, तो दूसरी जगह पर दख़ल करने की ज़रूरत नहीं है।। मतभेद पड़ता हो, तो फिर गुरुदेव ने क्या किया? गुरुदेव वे कि सभी दुःख टाल दें। प्रश्नकर्ता : उन गुरु की बात ठीक है, पर यह तो मैंने स्वयं की अंत:स्फूरणा से मैंने गुरु को स्वीकार किया था। दादाश्री : वह ठीक है । उसमें हर्ज नहीं है। पर हमने बारह वर्ष तक दवाई पी और भीतर रोग नहीं मिटा, तब इन डॉक्टरों और दवाईयों का क्या करना है ?, रखे उसके घर में! अनंत जन्मों तक यही किया है और भटकते रहे हैं ! प्रश्नकर्ता : परंतु उसमें गुरुदेव की भूल निकालनी या मेरी खुद की भूल? दादाश्री : गुरु की भूल है ! अभी मेरे पास साठ हज़ार लोग हैं। पर उनमें से किसीको दुःख हो, तो मेरी भूल है । उनकी क्या भूल बेचारों की ? वे तो दु:खी हैं इसीलिए मेरे पास आए हैं । यदि सुखी नहीं हो पाएँ तो मेरी भूल है I यह तो गुरुदेव ने खुद जबरदस्ती दिमाग़ में बिठा दिया और खुद से दूसरे को सुखी नहीं किया जा सकता इसलिए कहते हैं, 'आप टेढ़े हो इसलिए ऐसा होता है।' वकील अपने मुवक्किल को क्या कहता है कि, 'तेरा करम फूटा है, इसलिए ऐसा उल्टा हुआ । ' वर्ना, गुरु तो कैसे होने चाहिए? सर्वस्व दुःख ले लें! अन्य तो गुरु कहलाते होंगे? प्रश्नकर्ता: पर मुझे मेरी प्रकृति का दोष लगता है। दादाश्री : प्रकृति का दोष नहीं है । गुरु तो, चाहे जैसी आपकी प्रकृति हो, परंतु ले लेते हैं। ये गुरु बन बैठते हैं, वे यों ही बन बैठते हैं। लोग तो
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy