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________________ गुरु-शिष्य को गुरु बनाएँ तो क्या बुरा है? क्योंकि भीतर भगवान बैठे हुए हैं ! फिर चाहे पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़, उसकी वहाँ क़ीमत ही नहीं है! यानी अच्छे गुरु नहीं मिलें, तो अंत में पत्नी को भी गुरु बनाना ! क्योंकि गुरु को पूछकर चलें तो अच्छा रहता है। पूछे ही नहीं, तो फिर वह भटक मरेगा। आप क्या कहती हो? आप कहो उस अनुसार करें' ऐसे हम कहें। पत्नी को पति में गुरु का स्थापन करना चाहिए कि, 'आप क्या कहते हैं, उस अनुसार मैं करूँ।' ये दूसरे गुरु - प्रपंची गुरु बनाएँ, उसके बदले घर में प्रपंच तो नहीं! इसलिए पत्नी को गुरु बनाकर भी स्थापन करना चाहिए। परंतु एक गुरु तो चाहिए न! गुरु मिले फिर भी? प्रश्नकर्ता : गुरुदेव के तौर पर मैंने एक संत को स्वीकार किया है। तो मैं जप करने के लिए उनका नामस्मरण करने के बदले दूसरे का नामस्मरण जप की तरह स्वीकार कर सकता हूँ? दादाश्री : आपको यदि कोई अधूरापन लगता हो तो दूसरे का नामस्मरण करना। परंतु अधूरापन रहता है कोई? नहीं। यानी क्रोध-मान-माया-लोभ रहते नहीं है न? प्रश्नकर्ता : ऐसा तो भीतर सबकुछ होता है। दादाश्री : चिंता? प्रश्नकर्ता : चिंता रहती है, परंतु कम! दादाश्री : पर यदि चिंता हो तो फिर, जिनका नाम लेने से चिंता हो उनका नाम लेने का अर्थ ही क्या है? मीनिंगलेस! क्रोध-मान-माया-लोभ होते हों, तो वह नाम लेने का क्या अर्थ? ऐसे तो यह क्रोध-मान-माया-लोभ औरों को भी होते हैं और हमें भी होते हैं, यानी आपका काम पूरा नहीं हुआ है। तो फिर अब दुकान बदलो। कब तक एक ही दुकान में पड़े रहें? आपको पड़े रहना हो तो पड़े रहना, वर्ना यह सब तो मैं आपको सलाह दे
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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