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________________ गुरु-शिष्य ७१ चाहे जिस दुकान में बैठकर गिड़गिड़ाते रहते हैं। ऐसा नहीं देखते कि क्रोधमान-माया-लोभ की ठंड लगती रहती है। वह किस काम का फिर? परंतु अपने लोगों को यही बुरी आदत है। जिसकी दुकान में डेरा डाला, पर ऐसा नहीं देखता कि क्रोध-मान-माया-लोभ गए? कमजोरियाँ गईं? मतभेद कम हुए? कुछ चिंता कम हुई? संताप कम हुआ? आधि-व्याधि-उपाधि कम हुई? तब कहें, 'कुछ भी कम नहीं हुआ।' अरे, तब छोड़ न, इस दुकान में से निकल जा न, ऐसा समझ में नहीं आता? ___ यह तो गुरुओं की भूल है सारी। यह कोई गुरु (छोड़ने के लिए) हाँ नहीं कहते। सच्ची बात कहने के लिए मैं आया हूँ। मुझे किसीके साथ भेद नहीं है या किसीके साथ कोई झंझट नहीं है! बाक़ी, कोई गुरु हा नहीं कहते। क्योंकि उनकी ध्वजा ठीक नहीं है। गुरु बन बैठे हैं, चढ़ बैठे हैं पब्लिक पर! क्लेश मिटाएँ, वे सच्चे गुरु गुरु वे कि हमें ऐसा कुछ समझाएँ कि हमें क्लेश नहीं हो। पूरे महीने में भी क्लेश नहीं हो, इस तरह समझा दें, वे गुरु कहलाते हैं। हमें यदि क्लेश होता हो तो समझना चाहिए कि गुरु नहीं मिले हैं। कढ़ापा-अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट-कुढ़न, क्लेश) हो तो गुरु बनाने का अर्थ ही क्या है फिर? गुरु से कह देना चाहिए कि, 'साहब, आपका कढ़ापा-अजंपा गया नहीं लगता है। नहीं तो मेरा कढ़ापा-अजंपा क्यों नहीं जाएगा? मेरा जाए, ऐसा हो, तो ही मैं आपके पास फिर से आऊँ। नहीं तो 'राम राम, जय सच्चिदानंद' कह दें। ऐसी दुकानें घूम-घूमकर तो अभी तक अनंत जन्मों से भटका है! कुछ नहीं हुआ हो तो गुरु से कह देना कि 'साहब, आप बहुत बड़े व्यक्ति हैं, पर हमें कुछ नहीं होता है। इसलिए यदि उपाय हो तो करके देखिए, नहीं तो हम जाएँ अब।' ऐसा साफ-साफ कहना नहीं चाहिए? हमलोग दुकान में जाएँ तो भी कहते हैं कि, 'भाई रेशमी माल नहीं हो, तो हमें खादी नहीं चाहिए।' गुरु तो, हमने जिनकी समझपूर्वक पूजा की हो, अपना सारा मालिकीभाव सौंप दिया हो, तब वे गुरु कहलाते हैं। वर्ना गुरु कैसे? अपना अँधेरा दूर किया हो, उनके दिखाए हुए रास्ते पर चलें तो क्रोध-मान-माया-लोभ कम होते जाएँगे,
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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