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________________ गुरु-शिष्य १३७ स्त्री और बच्चे क्या बुरे थे? वे घंट छोड़े और ये नये घंट लटकाए ! वे पीतल के घंट थे और ये सोने के घंट! फिर ये घंट बजते रहते हैं! किसलिए यह सारा तूफ़ान खड़ा किया है? आपने शिष्य बनाए या नहीं? प्रश्नकर्ता : दादा ने किसीको शिष्य बनाया है? दादाश्री : मैं पूरी दुनिया का शिष्य बनकर बैठा हूँ। शिष्यों का भी शिष्य मैं हूँ। मुझे शिष्यों का क्या करना है? इन सबको वापिस कहाँ चिपकाऊँ? यों तो पचास हज़ार लोग मेरे पीछे घूमते हैं। लेकिन मैं इन सभी का शिष्य हूँ! 'आप' गुरु हैं या नहीं? प्रश्नकर्ता : तो आप गुरु नहीं हैं? दादाश्री : नहीं, मैं तो पूरे जगत् का शिष्य हूँ। मैं किसलिए गुरु बनूँ? प्रश्नकर्ता : मान लिजिए कि आज से आपको सच्चे गुरु माने और समर्पण कर दें तो? दादाश्री : परंतु मैं तो गुरु बनने के लिए फालतू नहीं बैठा हूँ। मैं तो आपको यहाँ पर जो ज्ञान देता हूँ, उस ज्ञान में ही रहकर आप अपने मोक्ष में चले जाओ न, यहाँ से। गुरु बनाने के लिए कहाँ बैठे रहोगे? मुझे गुरु मानने की ज़रूरत नहीं है। मैं गुरुपद स्थापन नहीं करने दूंगा, आपको दूसरा सब ठेठ तक का बता दूँगा। फिर हर्ज है? ___मैं किसीका गुरु नहीं बनता। मुझे गुरु बनकर क्या करना है? मैं तो ज्ञानीपुरुष हूँ। ज्ञानीपुरुष अर्थात् क्या? ओब्जर्वेटरी कहलाते हैं ! जो जानना हो वह जाना जा सकता है, वहाँ पर! प्रश्नकर्ता : ज्ञानी, गुरु नहीं हो सकते? दादाश्री : ज्ञानी किसीके गुरु नहीं बनते न! हम तो लघुत्तम हैं ! मैं किस
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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