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________________ १३८ गुरु-शिष्य तरह गुरु बनूँ? क्योंकि मुझमें बुद्धि बिल्कुल है ही नहीं और गुरु बनना, उसके लिए तो बुद्धि चाहिए। गुरु में बुद्धि चाहिए या नहीं चाहिए? हमने तो अपनी पुस्तक में लिखा है कि हम अबुध हैं। इस जगत् में किसीने खुद अपने आपको अबुध नहीं लिखा है। यह हम अकेले ही हैं, जिन्होंने पहली बार लिखा है कि हम अबुध हैं। वास्तव में अबुध होकर बैठे हैं ! हममें थोड़ी-सी भी बुद्धि नहीं मिलेगी। बुद्धि के बिना चलती है न, हमारी गाड़ी! इस तरह से ये सभी गुरु कुछ न्याय लगता है आपको? 'मैं इन सबका शिष्य हूँ', ऐसा कहता हूँ, उसमें कुछ न्याय लगता है? प्रश्नकर्ता : ये सब किस तरह आपके गुरु हैं? दादाश्री : ये सभी मेरे गुरु हैं ! क्योंकि उनके पास जो कुछ प्राप्ति होती है, वह मैं तुरंत स्वीकार लेता हूँ। परंतु वे समझते हैं कि हम दादा के पास से ले रहे हैं। इन पचास हज़ार लोगों को ही नहीं, परंतु पूरे वर्ल्ड के जीव मात्र को मैं गुरु की तरह मानता हूँ, पूरी दुनिया को मैं गुरु की तरह मानता हूँ। क्योंकि जहाँ किसी भी प्रकार का सत्य होगा, एक कुत्ता जा रहा हो वहाँ कुत्ते का सत्य भी स्वीकार कर लेता हूँ। जिसमें अपने से अधिक जो विशेषता हो, उसे स्वीकार कर लेता हूँ ! आपके समझ में आया न? प्रश्नकर्ता : मतलब कि जहाँ से कुछ भी प्राप्ति हो, वे अपने गुरु, ऐसा? दादाश्री : हाँ, उस तरह सभी मेरे गुरु! इसलिए मैंने तो पूरे जगत् के जीव मात्र को गुरु बनाया है। गुरु तो बनाने ही पड़ेंगे न? क्योंकि ज्ञान सभी लोगों के पास है। प्रभु कहीं खुद यहाँ पर नहीं आते। वे ऐसे फालतू नहीं है कि आपके लिए यहाँ पर चक्कर लगाएँ। 'इसके' सिवाय नहीं दूसरा कोई स्वरूप प्रश्नकर्ता : इसमें आप खुद को किस कोटि में मानते हैं?
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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