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________________ गुरु-शिष्य १३५ एक आदमी मुझे धोती देने आया, दूसरा फलाँ देने आया, मेरी इच्छा होती तो और बात थी, परंतु मेरे मन में किसी प्रकार की इच्छा ही नहीं! मुझे तो फटा हआ हो तो भी चलेगा। इसलिए मेरे कहने का यह कि जितना शुद्ध रखोगे उतना इस जगत् को लाभदायक हो जाएगा! ___ खुद की स्वच्छता अर्थात्... इस दुनिया में जितनी स्वच्छता आपकी, उतनी दुनिया आपकी! आप मालिक हैं इस दुनिया के! मैं इस देह का मालिक छब्बीस वर्ष से नहीं हुआ, इसलिए हमारी स्वच्छता संपूर्ण होती है! इसलिए स्वच्छ हो जाओ, स्वच्छ ! प्रश्नकर्ता : ‘स्वच्छता' का खुलासा कीजिए। दादाश्री : स्वच्छता अर्थात् इस दुनिया की किसी भी चीज़ की जिसे ज़रूरत नहीं हो, भिखारीपन ही नहीं हो! गुरुता ही पसंद है जीव को इसलिए यहाँ पर अलग ही प्रकार का है, यह दुकान नहीं है। फिर भी लोग तो इसे दुकान ही कहेंगे। क्योंकि 'और सभी ने दुकान खोली वैसी दुकान आपने भी किसलिए खोली? आपको क्या गर्ज़ है?' मुझे भी वैसी गर्ज़ तो है न, कि मैंने जो सुख पाया वह आप भी पाओ! क्योंकि लोग कैसे भट्ठी में भुन रहे हैं, शक्करकंद भट्ठी में भुनें, वैसे भुने जा रहे हैं लोग! या फिर मछलियाँ पानी से बाहर छटपटाएँ, वैसे छटपटा रहे हैं। इसलिए हमें घूमना पड़ता है। बहुत लोगों ने शांति का मार्ग प्राप्त कर लिया है। प्रश्नकर्ता : मतलब कि यह गर्ज़ नहीं है, परंतु इन सभी जीवों का कल्याण हो, ऐसी भावना होती है न! दादाश्री : कल्याण हो तो अच्छा, वैसी भावना होती है। इस वर्ल्ड में तीर्थंकरों और ज्ञानियों के सिवाय किसीने जगत् कल्याण की भावना नहीं की है। खुद के ही पेट का ठिकाना नहीं पड़ा हो, वहाँ पर लोगों का कहाँ विचार करें? सभी लोगों ने भावना क्या की है? ऊँचा पद ढूँढते रहे हैं! साधु हो तो
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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