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________________ ब्रह्मचर्य का मूल्य, स्पष्टवेदन आत्मसुख ऐसी फ्रीज़ जैसी ठंडक उसे और कहाँ मिले ? उसी प्रकार, इस जगत् के लोग विषयों की फ्रीज़ जैसी ठंडक में पड़े हुए हैं। विषयरूपी गारवता है, उसमें पड़े हुए हैं। वह कीचड़ निरी बदबू मारता है, मालिक टोकरी में अच्छा खाना देता है, फिर भी वहाँ पर उसे यह खाना अच्छा नहीं लगता । इस गारवता में सारा जगत् फँसा हुआ है। भले ही फँसे हुए हों । फँसे हैं, उसमें परेशानी नहीं है। कितनी मुद्दत के लिए फँसे हैं उसमें भी परेशानी नहीं है, लेकिन आज से नक्की तो करना चाहिए न कि अब यह नहीं चाहिए । कभी भी नहीं । सदा उसके विरोधी तो रहना चाहिए न ? वर्ना यदि दोनों एकमत हो गए, अंदर-बाहर एकमत हो गया कि खत्म हो गया । आपमें कितना एकमत होता है ? या अलग रहता है? प्रश्नकर्ता : अलग रहता है I १२९ दादाश्री : हमेशा ? मुझे नहीं लगता कि ये शूरवीर अलग रह पाएँ, ऐसे हैं ! इन शूरवीरों की क्या बिसात कि जिनकी जागृति मंद हो चुकी है! वर्ना विषय तो खड़ा ही नहीं होगा न ! और शायद यदि खड़ा हो जाए तो भी पूर्व प्रयोग होने के कारण । लेकिन तब खुद की दृष्टि मिठासवाली नहीं होती, निरी ऊबवाली दृष्टि होती है ! जैसे नापसंद भोजन खाना पड़े, तब उसका चेहरा कैसा होता है ? खुश होता है ? चेहरा भी उतर जाता है न! लेकिन खाए बगैर चारा नहीं है, भूख के मारे खाना पड़ता है। यानी उसे नापसंद है! जगत् ऐसी गारवता में पड़ा हुआ है। फिर भी जहाँ पूर्व प्रयोगी होने के कारण बँधे हुए हैं, वहाँ कोई चारा ही नहीं है । लेकिन फिर भी उसके प्रति निरंतर चिढ़, चिढ़ और चिढ़ ही रहनी चाहिए। और मन में ऐसा होते रहना चाहिए कि यह मुझे कहाँ मिला फिर से ? ऐसी जागृति है ही कहाँ ? पूरी डलनेस (मंदता) है ! जो गारवता में फँसा हुआ है, वह कैसे निकले? जब ज़बरदस्ती खाना पड़े, तब क्या चेहरा खुश होता है ? लेकिन ये चेहरे तो उतरे हुए
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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