SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य का मूल्य, स्पष्टवेदन - आत्मसुख १२७ सारा तो कल्पित सुख हैं, आरोपित सुख हैं। कड़ी धूप में अत्यंत थका हुआ आदमी, जब बबूल की छाँव में बैठे न, तो कहेगा मुझे बहुत ही आनंद आया था। विषय सुख भी वैसा ही आनंद है। आनंद तो निरुपाधि (बाह्य दुःखरहित) पद का होना चाहिए। ये सारे आनंद तुलनात्मक हैं। मनुष्य थका हुआ हो, कड़ी धूप से त्रस्त हो, उसके बाद यदि उसे कहें कि, 'बबल की छाँव में ठीक लगेगा?' तब कहेगा, 'बहुत अच्छा लगेगा।' अब इस आनंद को आनंद कहेंगे ही कैसे? । लोगों ने विषय में सुख माना है। उसी प्रकार खुद ने भी इसमें सुख मान लिया है। इसमें बिल्कुल भी सुख मानने जैसा नहीं है। ज्ञानी की संज्ञा से देखे तो इसमें निरा दुःख है। इसलिए उसकी तो बात ही करने जैसी नहीं है, उसकी बात की जाए तो भी मनुष्य वैराग्य ले ले। 'ज्ञानीपुरुष' से यदि कभी ब्रह्मचर्य से संबंधित बातें सुने तो वैराग्य ही ले ले। यदि विषय का पूरी तरह से वर्णन किया जाए तो मनुष्य सुनते ही पागल हो जाए। इतना जोखिमवाला है वह। जिसे आंतरिक सुख है, वह अब्रह्मचर्य करेगा ही नहीं। ये तो आंतरिक दुःख के कारण अब्रह्मचर्य करते हैं। जगत् के लोगों ने कहा, 'परस्पर देवो भवः'। अरे, लेकिन कब तक परस्पर? अतः जो निरालंब सुख है उसकी तो बात ही अलग है न! अरे! शुद्धात्मा का जो सुख है उसकी भी बात अलग ही है न! 'मैं शुद्धात्मा हूँ' कहा कि बाहर के सारे विचार चले जाते हैं। जिसे 'शुद्धात्मा में ही सख है', ऐसा यथार्थ रूप से समझ में आ जाए, उसे विषय में सुख नहीं लगेगा। पुण्य से सभी इन्द्रियसुख मिलते हैं। उसमें फिर कपट खड़ा हो जाता है, भोगने की लालसा की वजह से कपट खड़ा हो जाता है और कपट से संसार खड़ा है। जब तक विषय है, तब तक वह, यह आत्मसुख है और यह पौद्गलिक सुख है, इसका भेद समझने नहीं देगा। विषय-रस गारवता 'जगत् आखू गारवता मां रे प्रभु रह्यं छे फसी ?' अब लोग गारवता किसे कहते हैं?
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy