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________________ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध) ज्ञानीपुरुषों ने पूर्व में भावना नहीं की हो, फिर भी अब्रह्मचर्य के सागर में वे खुद ब्रह्मचर्य रख सकते हैं । वह जागृति कहलाती है। अग्नि में हाथ डालना है और जलना नहीं है, ज्ञानीपुरुष का ब्रह्मचर्य उस जैसा कहलाता है । इन त्यागियों का ब्रह्मचर्य, वह तो भावना का फल है । वास्तव में तो भगवान ने यही कहा है कि सबकुछ भावनाओं का ही फल है । लेकिन आख़िर में जागृति की ज़रूरत तो पड़ेगी ! जागृत हुए बगैर नहीं चलेगा । खुद ने भोगा या भोग लिया गया १२६ जहाँ कोई भी ऊपरी (बॉस, वरीष्ठ ) नहीं है, जहाँ कोई भी अन्डरहैन्ड नहीं है, वही मोक्ष कहलाता है । जहाँ किसी भी प्रकार का बुरा इफेक्ट नहीं है, परमानंद, निरंतर परमानंद, सनातन सुख में रहना, वही मोक्ष कहलाता है। इसे तो सुख कह ही नहीं सकते । यदि कोई शराबी आदमी ऐसा कहे कि मैं पूरे हिन्दुस्तान का राजा हूँ, तो हम नहीं समझ जाएँगे कि यह तो शराब के नशे में बोल रहा है ? उसी प्रकार इस भ्रांति की वजह से उसे इसमें सुख महसूस होता है । विषय में कहीं सुख होता होगा ? सुख तो भीतर है, लेकिन यह तो बाहर दूसरों में आरोप करते हैं इसलिए वहाँ पर सुख महसूस होता है । भ्रांतिरस से यह सब खड़ा हो गया है । भ्रांतिरस यानी क्या कि कुत्ता जिस तरह हड्डी चूसता है, वह आपने देखा है ? हड्डी पर जो थोड़ा-बहुत माँस लगा हुआ हो वह तो मानो मिल गया, लेकिन अब उसके बाद भी क्यों चूस रहा है ? हड्डी तो लोहे की तरह मज़बूत होती है फिर खूब दबाए न तब क्या होता है, कि उसके मसूड़े दबते हैं और फिर उनमें से खून निकलता है। कुत्ता समझता है वह खून हड्डी में से निकल रहा है, इसलिए वापस खूब चबा-चबाकर हड्डी चूसता है । अरे ! तू तेरा ही खून चूस रहा है । यह संसार भी इसी तरह चल रहा है। इसी तरह ये लोग भी हड्डियाँ ही चूस रहे हैं और खुद का ही खून चख रहे हैं। से बताओ, अब कितनी मुसीबत है ! उसी तरह पूरा जगत् विषय में सुख खोज रहा है । कुत्ते की तरह विषय में से सुख खोज रहा है, फिर कैसे सुख प्राप्त हो ? सच्ची चीज़ होगी तो उसमें से सुख मिलेगा। यह
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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