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________________ क्रम में करना है' और अक्रम में... एक भाई ने एक बार प्रश्न किया कि क्रम और अक्रम में फर्क क्या है? तब मैंने बताया कि, क्रम यानी जैसा कि सभी कहते हैं कि यह उल्टा (गलत) छोड़ो और सीधा (सही) करो। बार-बार यही कहना, उसका नाम क्रमिक मार्ग। क्रम यानी सब छोड़ने को कहें, यह कपट-लोभ छोडो और अच्छा करो। यही आपने देखा न आज तक? और यह अक्रम यानी, करना नहीं, करोमि-करोसि-करोति नहीं! अक्रम विज्ञान तो बहुत बड़ा आश्चर्य है। यहाँ 'आत्मज्ञान' लेने के बाद दूसरे दिन से व्यक्ति में परिवर्तन हो जाता है। यह सुनते ही लोगों को यह विज्ञान स्वीकार हो जाता है और यहाँ खिंचे चले आते हैं। अक्रम में मूल रूप से अंदर से ही शुरूआत होती है। क्रमिक मार्ग में शुद्धता भी अंदर से नहीं हो सकती, उसका कारण यह है कि केपेसिटी नहीं है, ऐसी मशीनरी नहीं है इसलिए बाहर का तरीका अपनाया है लेकिन वह बाहर का तरीका अंदर कब पहुँचेगा? मन-वचन-काया की एकता होगी, तब अंदर पहुँचेगा और फिर अंदर शुरूआत होगी। मूलतः (आजकल) तो मन-वचन-काया की एकता ही नहीं रही। एकात्मयोग टूटने से अपवाद रूप से प्रकट हुआ अक्रम जगत् ने स्टेप बाय स्टेप, क्रमशः आगे बढ़ने का मोक्ष मार्ग ढूँढ निकाला है लेकिन वह तभी तक सही था जब तक कि जो मन में हो, वैसा ही वाणी में बोलें और वैसा ही वर्तन में हो, तभी तक वैसा मोक्ष मार्ग चल सकता है, वर्ना यह मार्ग बंद हो जाता है। तो इस काल में मनवचन-काया की एकता टूट गई है इसलिए क्रमिक मार्ग फ्रेक्चर हो गया है। इसलिए कहता हूँ न कि इस क्रमिक मार्ग का बेजमेन्ट सड़ चुका है, इसलिए यह अक्रम निकला है। यहाँ पर सबकुछ अलाउ हो जाता है, तू जैसा होगा वैसा, तू मुझे यहाँ पर मिला न तो बस! यानी हमें और दूसरी कोई झंझट ही नहीं करनी।
SR No.030102
Book TitleAatmsakshatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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