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________________ है, वह नोकर्म है। वह भय नहीं है लेकिन वास्तव में घबराहट है। जो आठ प्रकार के द्रव्यकर्म हैं, वे संचित कर्म हैं और जो फल देते हैं वे प्रारब्ध कर्म हैं, उन्हें नोकर्म कहा गया है। स्वरूप ज्ञान के बाद अक्रम में नोकर्म, अकर्म कहलाता है वर्ना अज्ञान दशा में जो नोकर्म हैं, वे सकर्म कहलाते हैं। हर एक क्रिया में क्रोध-मान-माया-लोभ रहे हुए हैं ही, उनमें से द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं। दादाश्री दृष्टि बदल देते हैं, उससे संसार रोग चला जाता है। [ २.१४] भावकर्म + द्रव्यकर्म + नोकर्म द्रव्यकर्म में से भावकर्म उत्पन्न होते हैं और फिर उसमें से क्या बनता है? भावकर्म और नोकर्म दोनों के मिलने से वापस नया द्रव्यकर्म उत्पन्न हो जाता है। कॉज़ेज में से इफेक्ट और इफेक्ट में से कॉज़ेज..... अतः भावकर्म की माँ द्रव्यकर्म है और ओरिजिनल मूल द्रव्य कर्म (जो सब से पहले बना), उसकी माँ कौन है? तो वह है साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शयल एविडेन्स। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शयल एविडेन्स पहली पीढ़ी तक ही रहते हैं। उसके बाद द्रव्यकर्म में से भावकर्म बनते हैं और द्रव्यकर्म में से जो फल आते हैं, वे नोकर्म हैं। उसके बाद भावकर्म और नोकर्म के मिलने से नए ही द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं। देह और पट्टियाँ (आवरण), ये दोनों द्रव्यकर्म हैं। देह भावकर्म का साधन है। द्रव्यकर्म और नोकर्म परिणाम हैं। खुद उनका कर्ता नहीं है और भावकर्म का कर्ता खुद है लेकिन उसमें भी वह नैमित्तिक कर्ता है। संयोगों के दबाव से भावकर्म बनते हैं। पिछले जन्म के चार्ज किए हुए भावकर्मों के फल इस जन्म में नोकर्म के रूप में भोगने पड़ते हैं। इसमें मुख्य है भावकर्म, नोकर्म नहीं लेकिन भावकर्म वापस द्रव्यकर्म के निमित्त से ही बनते हैं। अगर द्रव्यकर्म नहीं हों तो भावकर्म नहीं बनेंगे। 59
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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