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________________ अहंकार सभी नोकर्म हैं। फिर यह स्थूल क्रोध-मान-माया-लोभ की बात नहीं है, यहाँ पर सूक्ष्म की बात है। स्थूल अनुभव हो, वे नोकर्म हैं। धौल लगाना, वह नोकर्म है और उस समय अगर अंदर क्रोध आ जाए तो वह भावकर्म है। ज्ञान होने के बाद क्रोध हो जाए, धौल लगा दे, तब भी वह भावकर्म नहीं है। मात्र झड़ते हुए नोकर्म हैं। क्रिया को नोकर्म कहा गया है। जिसकी आत्मदृष्टि हो गई होगी उसे क्रिया नहीं चिपकती। दृष्टि ही मुख्य वजह बन जाती है। धर्म में जो पाठ-पूजा, उपवास और जप-तप करते हैं वे सभी नोकर्म हैं। प्रकृति जो करती है उसमें अगर आत्मा का भावकर्म नहीं है तो वे सभी नोकर्म हैं। सभी हाजत नोकर्म हैं। राग-द्वेष रहित सभी क्रियाएँ नोकर्म कहलाती हैं। अक्रम ज्ञान में, 'मैं कर्ता नहीं हूँ, व्यवस्थित कर्ता है,' इस ज्ञान से नया कर्म नहीं बंधता। जो दिखाई देते हैं, वे सभी नोकर्म हैं। दादाश्री कर्तापन के आधार को ही खत्म कर देते हैं। महात्माओं की क्रियाएँ अज्ञानी जैसी ही दिखाई देती हैं, इसलिए औरों को कोई फर्क महसूस नहीं होता लेकिन उनके भावकर्म खत्म हो चुके हैं, जो बचे, वे नोकर्म हैं। नोकर्म के दो भाग हैं। एक चारित्र मोहनीय जो अब महात्माओं में रहा है और दूसरा मोहनीय जो अज्ञान दशा में रहता है। दर्शन मोह जाने के बाद जो बाकी बचता है, वह चारित्र मोह है। नोकषाय महात्माओं पर असर नहीं डालते। जो कषाय करने में निमित्त बनते हैं, वे नोकषाय हैं। अक्रम में फाइल १ से उनका प्रतिक्रमण करवाना चाहिए। अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, संज्वलन कषायों के चतुष्क को भावकर्म कहा जाता है। क्रमिक में नोकर्म अर्थात् हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुसंक वेद। रति-अरति अर्थात् लाइकडिसलाइक और जुगुप्सा अर्थात् घिन आना। भय अर्थात् घबराहट । कुदरती रिफ्लेक्शन....अचानक से बड़ा धमाका हो जाए तो उससे शरीर काँप जाता 58
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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