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________________ तो, व्यवहार से उसके लिए प्रेरक और ग्रहण करनेवाला माना जाता है । मान्यता के अनुसार पुद्गल उसी स्वरूप का हो जाता है। इसके फल स्वरूप भाव, द्रव्य बन जाते हैं । क्रमिक मार्ग में भावकर्म, वह खुद की निज़ कल्पना कहलाती है, इसलिए चेतनरूप अर्थात् मिश्रचेतन बन जाता है | चेतन की स्फूरणा होने से पुद्गल में पावर आ जाता है, जिससे पावर चेतन बना है। ज्ञान के बाद नया पावर नहीं भरता । जड़धूप अर्थात् परमाणु खिंचते हैं। गुस्सा होना, वह भावकर्म है। उसके (क्रोध के) परमाणु खींचता है। ये जो परमाणु खिंचते हैं, वे बाहर से नहीं खिंचते। बाहर तो वे स्थूल रूप से हैं। यह तो अंदर के ही परमाणुओं को, निज आकाश में खींचता है। सूक्ष्म के हिसाब से फिर बाहर के स्थूल परमाणु मिल आते हैं और रूपक में आते हैं । खुद ने जो कल्पना की अर्थात् जैसी डिज़ाइन बनाई, परमाणु वैसे ही हो जाते हैं। अत: जिस तरह की स्फूरणा हुई, उसी तरह के पुद्गल को खींचता है और उसी तरह का सारा सर्जन हो जाता है। ये गधे, हाथी, चींटी वगैरह खुद की ही स्फूरणा से उत्पन्न हुए हैं, लेकिन वह परभाव में हो गया है । परसत्ता में हो गया है। आत्मा ज्ञान से अकर्ता है और अज्ञान से कर्ता है। जिसका उपचार नहीं हुआ, डिज़ाइन नहीं बनी, कोई योजना नहीं बनी, उस अनउपचरित व्यवहार से आत्मा द्रव्य कर्म का कर्ता है। 'मैं कह रहा हूँ, जा रहा हूँ, आ रहा हूँ,' वह है उपचारिक व्यवहार, जो चरित हुआ वह उपचरित होता है और उसमें से औपचारिक हो जाता है । उपचार से घर-व्यापार आदि का कर्ता है और अनुपचर्य अर्थात् नाक-कान- - आँख वगैरह, वह क्या हमने ही गढ़ा है ? I भावकर्म करने से देह निर्मित हो जाती है । भावकर्म करनेवाले को (अहंकार को) पुद्गल से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन जैसे भाव किए हैं, उसी अनुसार पुद्गल बन जाता है ! 55
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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