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________________ अक्रम ज्ञान से दादाश्री ने उपचार और अनुपचार खत्म कर दिए। क्रमिक में, जो दिखाई देते हैं उन्हीं को द्रव्य कर्म कहते हैं। वास्तव में द्रव्य कर्म दिखाई नहीं देते। भाव कौन करता है? व्यवहार आत्मा। प्रतिष्ठित आत्मा भी भाव नहीं करता और शुद्धात्मा भी नहीं करता। द्रव्य कर्म की पट्टी की वजह से कषाय (आवरण) हैं और उसी की वजह से भावकर्म हैं। अक्रम में दादाश्री द्वारा दिया गया भावकर्म, द्रव्य कर्म और नोकर्म का स्पष्टीकरण क्रमिक से बिल्कुल अलग है, लेकिन यथार्थ है। द्रव्य कर्म में से भावकर्म उत्पन्न होते हैं। डिस्चार्ज हो रहे कर्म, इफेक्ट में आए हुए कर्म, वे सभी नोकर्म हैं। जो भावकर्म डिस्चार्ज होते हैं, वे नोकर्म हैं। क्रमिक मार्ग में, गुस्सा होना, वह भावबंध है और मार खाना, वह द्रव्यबंध है। क्रमिक में नोकर्म को द्रव्य कर्म कहते हैं। वास्तव में मार खाना वह नोकर्म है। क्रमिक में ऐसा मानते हैं कि भावकर्म में से द्रव्य कर्म बनते हैं लेकिन वास्तव में द्रव्य कर्म, ये जो आठ प्रकार के हैं, उन्हीं को कहते हैं। द्रव्य कर्म में से भावकर्म, भावकर्म में से वापस द्रव्य कर्म। नोकर्म की कोई क़ीमत ही नहीं है। क्रिया नहीं, लेकिन जो भाव होते हैं वे भावकर्म है। लोकपूज्य व्यक्ति को 'आइए, पधारिए, पधारिए' कहते हैं तो उससे सेठ खुश हो जाते हैं, वह भावकर्म है। अपमान होने पर डिप्रेस हो जाते हैं, वह भी भावकर्म है। अक्रम में, ज्ञान के बाद भावकर्म खत्म हो जाते हैं क्योंकि इन सभी का मालिक ही हट गया! मालिक हो तो क्या होगा? यह 'मेरा' है, ऐसी दृष्टि उत्पन्न होने से वापस आश्रव (कर्म चार्ज) हो जाएगा। भावकर्म होने से आश्रव होता है, उससे वापस कर्म बंध पड़ता है। इस आश्रव बंध को लोग अनादिकाल से खोदकर निकालने जाते हैं लेकिन वैसा होता नहीं है, 56
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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