SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९२ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) तो वृत्तियाँ अभी आपको शांति से बैठने ही नहीं देतीं। आपकी जो भरी हुई वृत्तियाँ हैं न, वे आपको अभी शांति से बैठने ही न दें। इधर-उधर होता ही रहता है। गाड़ी में बैठा हो तब भी इधर-उधर होता रहता है। प्रश्नकर्ता : यानी इसका अर्थ ऐसा हुआ कि इस ज्ञान से या खुद के पुरुषार्थ से इंसान अपने प्रारब्ध को बदल सकता है? दादाश्री : बदलाव हो ही जाता है न! प्रश्नकर्ता : बदलाव हो जाता है, इसका मतलब ऐसा हुआ कि कर्म की थ्योरी में बदलाव किया जा सकता है, उसे पलटा जा सकता है? दादाश्री : ऐसा नहीं है, उसमें इस तरह का बदलाव नहीं कहा जाता। प्रश्नकर्ता : तो उसे क्या कहते हैं? दादाश्री : वह एक रतल का था, वह दृष्टि बदलने से ज़रा कम हो जाता है और बाहरी दृष्टि से पाँच रतल का हो जाता है। कर्ता बनता है इसलिए। ज्ञाता बने तो कम हो जाता है। प्रश्नकर्ता : और कई बार तो देखने से चला भी जाता है। दादाश्री : चला ही जाता है। पूरी तरह से चला जाता है। छोटा सा सिग्नेचर करते हैं न, वैसा हो जाता है। छोटा सा सिग्नेचर करें तो काम हो जाता है या नहीं? प्रश्नकर्ता : हो जाता है। दादाश्री : ऐसा हो जाता है। प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा रहने से खत्म भी हो सकता है? दादाश्री : उसके बाद कुछ रहता ही नहीं। सिर्फ सीन-सीनरी दिखाई देती हैं, उतना ही रहता है ज़रा। अगर रहता तो बोझ लगता। ज्ञाता-दृष्टा रहने पर कुछ भी बाकी नहीं बचता। ज्ञाता-दृष्टा नहीं रहें तब ज़रा बोझ लगता है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy