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________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक दादाश्री : हाँ, आपका दृष्टा का है। दर्शन खुला है न, इसलिए दृष्टा पद रहता है प्रश्नकर्ता : ज्ञातापद नहीं है? दादाश्री : अब ज्ञाता तो अनुभव होते-होते होगा। जितना अनुभव होगा उतना ही ज्ञाता रहा जा सकेगा। ३६७ इन्हें किसी ने गाली दे दी, तो उस घड़ी हिल जाते हैं लेकिन वापस मन में ऐसा लगता है कि 'नहीं, जिसे गाली दी है वह मेरा स्वरूप नहीं है । ' यों वह अनुभव हुआ इसलिए फिर अगली बार वह ज़रा ज़्यादा ज्ञाता पद में रहेगा। उसके बाद वह ज्ञान में रहते-रहते-रहते ज्ञातापद में आ जाता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् जैस-जैसे जागृति बढ़े, वैसे-वैसे ज्ञातापद बढ़ जाता है? दादाश्री : जागृति तो है ही लेकिन वे जो हिसाब हैं न, उन हिसाबों को चुकाए बगैर जागृति नहीं रह सकती । जैसे-जैसे हिसाब चुकते जाएँगे, वैसे-वैसे ज्ञान बढ़ता जाएगा । दर्शन और ज्ञान मिल गए तो उसे चारित्र कहते हैं। उस घड़ी अंदर तप की ज़रूरत पड़ती है ! अनुभव तो कई बार अंदर कचोटता रहता है, जैसे कि पट्टी उखाड़ें तो एक-एक बाल को साथ में लेकर उखड़ती है न! हृदय अंदर तप जाता है, अच्छी तरह से तप जाता है, वह अदीठ तप है ! अदीठ तप किसी को दिखाई नहीं देता । चेहरे पर से पता चलता है लेकिन अदीठ तप बाहर दिखाई नहीं देता और ये लोग जो बाह्य तप करते हैं, उसका फल संसार फल है और अदीठ तप का फल मोक्ष है। जगत् में अदीठ तप है ही नहीं । प्रश्नकर्ता: दादा, हमें तो इसमें समय लगेगा न? अभी तो हमारा दृष्टापद ही रहेगा न? दादाश्री : दृष्टापद तो बहुत उच्च पद कहलाता है । प्रश्नकर्ता : नहीं। यानी कि हमारा तो दृष्टा पद रहेगा न या ज्ञाता पद आएगा?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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