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________________ ३६६ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) है और यह विषधारा अलग है। वहीं पर यह विज्ञान है, उसमें थोड़ी सी भी गलती करोगे तो मार खा जाओगे। सर्दी के दिनों में यह बटन दबा दिया तो पूरी रात पंखे चलने लगेंगे, तो उस घड़ी क्या दशा होगी? ज़रा मेरे पास आकर समझना पड़ेगा यह विज्ञान । वह बहुत समझने जैसा है। प्रश्नकर्ता : लेकिन कभी अगर ऐसा कर दिया और मन में ऐसा लगे कि 'अरे, मैंने ऐसा कहाँ कर दिया,' तो? दादाश्री : 'मैं' नहीं आना चाहिए। 'मैं' शब्द, खुद कर्ता है ही नहीं तो फिर 'मैंने किया' ऐसा बोल ही कैसे सकते हैं? खुद कर्ता है ही नहीं किसी क्रिया का, ज्ञाता-दृष्टा बन गया है। आपको कौन सा पद दिया है? प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा पद। दादाश्री : और आप ऐसा कहो कि 'मैंने किया' तो उसका मतलब तो वह इनवोल्व हो गया, वह तो गलत ही है न! आप ऐसा कह ही नहीं सकते कि 'मैंने किया।' आपको शंका होती है तो ये वृत्तियाँ चली जाती हैं, आप खुद नहीं जाते। ये तो वृत्तियाँ चली जाती हैं, जबकि वह समझता है कि 'मैं चला गया।' अरे! आप नहीं गए, आप उसमें हो ही कैसे सकते हो! 'मैं तो ज्ञाता-दृष्टावाला हूँ।' आपको यह सारा विज्ञान समझ में आया? कोई भी हिला न सके, ऐसा है यह विज्ञान। और उसके बाद यह कर्तापन रहा पुद्गल का, आपके ज्ञाता होने के बाद आपका कर्तापन रहा ही नहीं न! जो करता है वह जानता नहीं है और जो जानता है वह करता नहीं है। कर्ताभाव और दृष्टाभाव दोनों अलग हैं। 'मुझे यह हुआ,' 'मैं यह कर रहा हूँ,' ऐसा नहीं लेकिन मैंने यह जाना' ऐसा रहता है, ज्ञाता-दृष्टा रहेगा, तो कॉज़ नहीं डलेंगे। प्रश्नकर्ता : आपने पद तो ज्ञाता-दृष्टा का दिया है न? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : तो आप ऐसा कह रहे थे कि हमारे महात्मा दृष्टा पद में है, जबकि हमारा पद ज्ञाता-दृष्टा का है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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