SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२.१२] द्रव्यकर्म + भावकर्म शुरुआत हो गई कि जिससे सभी प्रकार के देह की शुरुआत होती है । प्रश्नकर्ता : तो फिर दादा इसमें आपने ऐसा रखा है, कि 'पुनर्जन्म का जो चक्कर चलता है, वह लिंगदेह के भाव पर से ही होता है । ' ३०३ दादाश्री : हाँ, उसके भाव पर से होता है । भाव अर्थात् भाना (पसंद करना) नहीं। अपने महात्मा कहते हैं, 'मुझे रस -रोटी' बहुत भाती है, तो उससे मुझे कर्म नहीं बंधेगे? मैंने कहा, 'अरे, भाता है वह तो इच्छा है।' वह आप अपनी भाषा में बोल रहे हो कि भाता है। उसे अगर ' रुचता है, ' ऐसा बोलोगे तो भी चलेगा। लेकिन भावकर्म तो अलग ही चीज़ है I भावकर्म यानी ‘मैं चंदूभाई हूँ और यह देह मेरी है।' ऐसा सब मानकर जो कुछ भाव किया जाता है वह भावकर्म है, और जो ऐसा नहीं मानते उनका लिंगदेह बंद हो गया। प्रश्नकर्ता : अब लिंगदेह बंद हो गया यानी उसका अर्थ यह हुआ कि उसे कोई भाव उत्पन्न ही नहीं होता? दादाश्री : इस ज्ञान के बाद आपके भाव ही बंद कर दिए हैं न ! प्रश्नकर्ता : हाँ। इसलिए फिर वहाँ पर तो लिंगदेह रहेगा ही नहीं न, ठीक है। तो यदि हम ऐसा मानें कि 'मैं चंदूभाई नहीं हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ, तो फिर मुझे क्या करना है? कुछ भी नहीं करना है? दादाश्री : नहीं। करना क्यों नहीं है ? 'मैं क्या हूँ' ऐसा जब तय हो जाता है, उसके बाद ‘यह नहीं हूँ' ऐसा तय हो जाता है। अब इस लाइन में जाना है, हमें यह दुकान खाली कर देनी है और ज्ञाता - दृष्टा - परमानंद में रहना, वही सब अपना काम है I इस लिंगदेह में भी फिर कुछ अपवाद हैं। यानी अपने महात्मा अभी भी संसार भाव तो रखते हैं । स्त्री संग वगैरह ऐसे सब संग हैं न। फिर भी वह उनके लिए लिंगदेह में नहीं आता क्योंकि वही भाग कर्तापन में रहता है, वह खुद 'मैं चंदूभाई' होता तो वह ज़िम्मेदारी भी उसकी। तो उसका भाव में आता जबकि यहाँ तो खत्म हो जाता है। बस ! इतना ज़्यादा चेन्ज आ जाता है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy