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________________ ३०२ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) ही चंदूभाई हूँ, अब वैसा नहीं है। तब कोई कहे कि 'चंदूभाई नहीं है?' तो वह चंदभाई है ज़रूर लेकिन व्यवहार से कहलाते हैं। मात्र व्यवहार के लिए ही, वास्तव में 'मैं' चंदूभाई नहीं है! पूरी ‘दृष्टि' ही बदल गई है। ___ यह तो, कृपालुदेव ज्ञानीपुरुष थे इसीलिए इस बात की प्राप्ति कर ली! उन्होंने जब प्राप्ति की तब खुद ने लिखा कि 'आश्रवा ते परिश्रवा, नहीं इनमें संदेह, मात्र दृष्टि की भूल है।' । लिंगदेह, वही भावकर्म है प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा इसमें ऐसा हुआ कि आत्मा निर्लेप है, आत्मा पर कुछ भी असर नहीं होता। इसी प्रकार शरीर पर भी कोई असर नहीं होता। जो कुछ भी असर होता है, मान-अपमान, क्रोध-काम वह सारा असर लिंगदेह पर होता है, तो लिंगदेह कहाँ है? वही अहंकार करता है। मान और रुतबा उसी को है। काम-क्रोध उसे होते हैं। उसी (अहंकार) की वजह से शरीर है और आत्मा अंदर इन्वोल्व हो जाता है, तो यह लिंग देह क्या है वह बताइए। दादाश्री : ऐसा है कि जो लिंगदेह है, उसे हम भावकर्म कहते हैं। अब भावकर्म स्वाधीन नहीं है, पराधीन है। यह भावकर्म किसी बीज का फल है। उसका फल मिलता है, उसी को भावकर्म कहते हैं। उसे वापस हम बीज के रूप में मानते हैं और उसी का फल मिलता है। तो उसे फिर ये लोग द्रव्यकर्म कहते हैं। लेकिन यह भावकर्म यानी कि आप, अगर कोई व्यक्ति उच्च गोत्र का हो तब इस तरफ फादर-मदर सभी का गोत्र उच्च होता है, इसीलिए आप जब आते हो तब तुरंत ही 'आइए, पधारिए' ऐसा रहता है। लोग ‘आइए, पधारिए' कहते हैं। तो उस घड़ी आपके मन पर उसका असर हो जाता है, और बिना दबाए ही छाती यों फूल जाती है, उसे भावकर्म कहते हैं। अगर गोत्र ज़रा ढीला हो तो नहीं बुलाते, तो उसके मन में ऐसा होता है कि, 'साले, ये लोग नालायक ही हैं। मुझे पहचान ही नहीं सकते।' अरे, ऐसा क्यों कहते हो? ऐसे भावकर्म किए है उसने। यह लिंगदेह की
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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