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________________ [२.१२] द्रव्यकर्म + भावकर्म २८९ दादाश्री : यह तो ऐसा है न कि वह क्रमिक मार्ग है। अब यह क्रमिक मार्ग किसे चेतन मानता है? व्यवहार आत्मा को चेतन मानता है। अर्थात् उस चेतन की प्रेरणा है यह लेकिन हम क्या कहते हैं कि यह सब इगोइज़म का है! और वे उसे आत्मा कहते हैं कि 'यह प्रेरणा चेतन दे रहा है।' अब यह चेतन तो चेतन है ही लेकिन हमने तो हिसाब निकाला कि यह पावर चेतन है, ऑलराइट (मूल शुद्ध) चेतन नहीं है। और यदि ऑलराइट चेतन होता तो वह जो प्रेरणा हुई तो वह हमेशा के लिए प्रेरक ही रहता, जहाँ जाए वहीं पर। प्रश्नकर्ता : अतः यह जो, पुद्गल का जो परिवर्तन होता है, उसमें उसे ग्रहण कौन करता है? ग्रहण करने का क्या है इसमें? दादाश्री : हाँ, सही कहते हैं, 'होए न चेतन प्रेरणा, तो कौन ग्रहे कर्म?' यह 'मैं कर रहा हूँ,' वह कर्म का ग्रहण करता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् कोई ग्रहण नहीं करता लेकिन यह तो मान्यता दादाश्री : यह सारी मान्यता ही है न! ये सारी रोंग बिलीफें ही हैं। ये भी मान्यता ही हैं और फिर वैसा ही स्वरूप पुद्गल का हो जाता है। 'हम' जैसा बोलते हैं न, वैसा ही स्वरूप पुद्गल का हो जाता है। जैसे भाव हैं, उसके फल स्वरूप द्रव्य बन जाता है। पुद्गल का गुण ऐसा है और अगर ऐसा रहे कि 'मैं कर्ता नहीं हूँ' तो फिर उस पुद्गल को कुछ भी नहीं होता। जो हैं, वे भी अलग हो जाते हैं। ज्ञाता-दृष्टा हुए कि अलग हो जाते हैं। जब तक कर्ता है तब तक नए पुदगल को ग्रहण भी करता है और पुराने को छोड़ता भी है। छोड़नेवाला भी 'वह' है और ग्रहण करनेवाला भी 'वही'। जबकि इसमें तो ग्रहण करनेवाला बंद हो गया और छोड़नेवाला व्यवस्थित है। बीच में 'खुद' मुक्त हो गया। अब यह गूढ़ चीज़ लोगों को किस तरह समझ में आए? यह नहीं समझ पाता इसीलिए ऐसा ही समझता है कि मूल चेतन ही यह सब कर रहा है!
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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