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________________ २९० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) भावकर्म है निज कल्पना प्रश्नकर्ता : तो कृपालुदेव ने यह भी कहा है न, ‘भावकर्म निज कल्पना, माटे चेतन रूप, जीव वीर्य की स्फुरणा, ग्रहण करे जड़ धूप।' यह समझाइए। दादाश्री : हाँ, वह ठीक है। 'भावकर्म निज कल्पना माटे चेतन रूप' लेकिन वह तो जब तक भावकर्म रहेंगे, तभी तक है। वह जो भावकर्म है वह व्यवहार आत्मा से संबंधित है। अपने यहाँ पर भावकर्म ही पूरी तरह से खत्म कर दिया है, बिल्कुल ही। प्रश्नकर्ता : मूल आत्मा को रखा है सिर्फ। दादाश्री : (अक्रम में) शुद्ध मूल आत्मा को ही रख दिया है जबकि क्रमिक में, वह भावकर्म है। वह 'खुद' की कल्पना है, अतः चेतन रूप अर्थात् मिश्रचेतन बनता है। निज कल्पना अर्थात् संकल्प-विकल्प। जिसे भावकर्म नहीं है वह निर्विकल्प। हमने भावकर्म का पूरा अस्तित्व ही खत्म कर दिया। क्रमिक मार्ग में जो अंतिम अवतार में जाता है, केवलज्ञान होने पर जाता है, वह हमने यहाँ पर तुरंत ही खत्म कर दिया। वर्ना तो 'आप' निर्विकल्प कहलाओगे ही नहीं न! और 'मैं चंदूभाई हूँ,' वही विकल्प है, 'मैं इन्जीनियर हूँ' वह...विकल्प है, 'मैं जैन हूँ' वह....विकल्प है, 'मैं बनिया हूँ' वह....विकल्प है, 'पचास साल का हूँ' वह.....विकल्प है, ऐसे कितने ही विकल्प हैं। सभी विकल्प फ्रेक्चर हो गए। अब यह जो भाषा है, उसे सिर्फ ज्ञानी ही समझ सकते हैं। अज्ञानी लोग तो कैसे समझेंगे? अतः लोग मूल चेतन को ही ऐसा समझते हैं कि चेतन ऐसा ही होता है। भाव और संकल्प-विकल्प किए बगैर रहता ही नहीं है। भावकर्म वह कहलाता है कि व्यवहार आत्मा का संकल्प किया और विकल्प किया। उसमें चेतन की स्फुरणा हुई, इसलिए उसमें पावर आ गया,
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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