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________________ १६४ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) अपना यह सम्यक्त्व मोह चला गया है। यह आत्मा है, ऐसा तय हो जाता है, निःशंक भाव से। बिल्कुल भी शंका नहीं रहती। 'दादाजी जो बता रहे हैं, वही आत्मा है। अपना आत्मा प्रकट हो गया है। उसके बाद शंका का कोई स्थान नहीं रहता। वर्ना इस जगत् में किसी का भी संदेह गया नहीं है। अब तो संदेह गया, शंका गई, सबकुछ गया और आत्मा हाज़िर हो गया। फिर और क्या चाहिए? प्रकट चैतन्य हाज़िर हो गया। हम याद न करें, फिर भी अपने आप आ जाता है। फिर और क्या चाहिए? जिस दिन ज्ञान मिलता है, उस पहली रात का आनंद अभी भी याद आता है न! उस समय डिस्चार्ज तुरंत नहीं निकलते न? फिर डिस्चार्ज का उदय आया या डिस्चार्ज हुआ तब फिर वह वापस उलझने लगता है। वह पद तो देखा है न! अर्थात् पहले घंटे में, जीतेन्द्रिय जिन बन गया। उसके बाद के एक घंटे में वह जित मोह जिन बन जाता है। जब तक वह मोह क्षय नहीं हो जाता, तब तक यह जित मोह जिन। उसके बाद क्षीण मोह जिन। जहाँ पर नकद है, जहाँ पर खुद ही हाज़िर हो जाता है, आत्मा खुद ही हाज़िर हो जाता है। इस जगत् में कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि जो निरंतर हाज़िर रह सके। तीर्थंकरों ने पूरे प्रमाण दिए हैं न? आपको अनुभव होता है न मैं कह रहा हूँ उस अनुसार? ज्ञानावरण, दर्शनावरण कैसा पद्धतिपूर्वक, क्रमपूर्वक कहा है। इसका क्या कारण है? सभी का मूल कारण, आठों कर्मों का मूल कारण दर्शनावरण है। पहले इस मूल कारण का छेदन होता है। उससे आपका पूरा ही दर्शनावरण छूट (चला) गया। प्रश्नकर्ता : दर्शन मोहनीय पहले टूटा या दर्शनावरण पहले टूटा? दादाश्री : वह मोह और वह आवरण, दोनों साथ में ही टूटते हैं यानी कि पहले या बाद में नहीं, दोनों साथ में ही फ्रेक्चर होते हैं। एट ए टाइम सारा ही फ्रेक्चर हो जाता है, एक घंटे में।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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