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________________ [२.४] मोहनीय कर्म १६३ और यह संसार भी सच है। शास्त्र भी सच हैं और अपना घर, बीवी-बच्चे, व्यापार भी सच हैं। दोनों जगह पर मोह के परिणाम। वहाँ जाए तब वहाँ के मोह में रहता है और यहाँ पर आए तब यहाँ के मोह में रहता है। एक तरफ के मोह में हो तो मिथ्यात्व मोह कहलाता है। जबकि ये लोग दोनों मोह में रहते हैं। मंदिर में जाए तो वहाँ पर उतने समय तक आनंद में रहता है और उपाश्रय में जाए तो वहाँ पर जितनी वाणी सुनने को मिलती है, उतने समय उठने का मन नहीं करता और काम-धंधे पर जाए तो वहाँ पर भी मोह उत्पन्न होता है। यह मिश्र मोहनीय, दर्शन मोहनीय कहलाता है। मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के जाने के बाद उसे समकित होता है। जब क्रोध-मान-माया-लोभ, चारों ही चले जाते हैं, तब उसे समकित होता है। उपशम समकित। और फिर उपशम समकित का मतलब अर्धपुद्गल परावर्तन काल (ब्रह्मांड के सारे पुद्गलों को स्पर्श करके, भोगकर खत्म करने में जो समय (काल) व्यतीत होता है, उससे आधा काल) तक भटकता रहता है। उसके बाद बहुत समय बीत जाने पर क्षयोपक्षम में आता है। यह उपशम हो गया है, उसके क्षयोपक्षम का क्षायक होते-होते तो अर्ध पुद्गल परावर्तन अर्थात् तो बहुत काल की भटकन हो जाती है। क्षायक कब होता है कि जब सम्यक्त्व मोहनीय जाए तब। सम्यक्त्व मोहनीय को तो, हिंदुस्तान में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जिसे सम्यक्त्व मोहनीय हो। अगर वह हो जाए तब तो बहुत अच्छा काम हो जाता। सम्यक्त्व मोहनीय अर्थात् अन्य कोई चीज़ याद नहीं आती। 'आत्मा कैसा होगा? आत्मा क्या होगा? किस तरह से जाना जा सकता है? किस तरह से प्राप्ति हो सकती है?' सारा मोह आत्मा जानने के लिए ही। ऐसे कौन हैं यहाँ पर? पूरे दिन यही! अन्य कोई परिणाम ही नहीं। निरंतर उसी में। आत्मा कैसा होगा और कैसा नहीं? उसे कैसे जाना जा सकता है वगैरह इसी सोच में रहनेवाले कितने लोग होंगे? लोगों को तो एक घंटे भी नहीं रहता। जबकि यह तो निरंतर रहता है, निरंतर। और जिसे ऐसा नक्की हो गया कि आत्मा 'यही' है और शंका उत्पन्न नहीं हुई तो सम्यक्त्व मोह नष्ट हो जाता है, उसे क्षायक समकित हो जाता है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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