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________________ [१८] प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा प्रश्नकर्ता : गीता में जब अर्जुन कहते हैं कि 'मैं नहीं लडूंगा' तब कृष्ण भगवान उसे कहते हैं कि 'तेरे स्वभाव से, तेरी प्रकृति की वजह से तू लड़ेगा ही । ' १०९ दादाश्री : हाँ, प्रकृति का अनुसरण किए बगैर कोई रह ही नहीं सकता न। कृष्ण भगवान ने भी खुद की प्रकृति का अनुसरण किया न ! अपना कुछ चलता ही नहीं न ! प्रकृति छोड़ती ही नहीं न किसी को ! सिर्फ खुद के अभिप्राय बदल देता है ज्ञान से । प्रकृति के अधीन राग हुए बगैर रहेगा ही नहीं। अगर खुद का अभिप्राय बदल जाए कि यह शोभा नहीं देता, तो छूट जाएगा। मालिकी भाव छूटने के बाद, बचे दिव्यकर्म प्रश्नकर्ता : आत्मा के अलग हो जाने पर भी प्रकृति रहती है। वह तो अपना काम करती ही रहती है । दादाश्री : प्रकृति अपने आप ही स्वभाव से काम करती रहती है। उसमें आत्मा की ज़रूरत नहीं पड़ती। सिर्फ आत्मा की हाज़िरी की ज़रूरत है। हाज़िरी अर्थात् प्रकाश आत्मा का है। प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा के अलग हो जाने के बाद प्रकृति का भी दिव्यकरण हो जाना चाहिए न ? दादाश्री : प्रकृति का वैसा दिव्यकरण हो जाने के बाद ही वे दिव्यकर्म कहलाते हैं। फिर जो कर्म बचे न, वे दिव्यकर्म हैं। उनका कोई मालिक नहीं है, और अहंकार नहीं है इसलिए दिव्यकर्म कहलाते हैं I प्रश्नकर्ता : लेकिन जिन्हें ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है, ऐसे विश्वामित्र की प्रकृति भी काम कर गई। कई बार वह प्रकृति खुद की पकड़ नहीं छोड़ती, ज्ञान होने के बाद भी प्रकृति छोड़ती नहीं है । वह तो काम कर ही लेती है। दादाश्री : कोई हर्ज नहीं । प्रकृति करे तो हर्ज नहीं है। प्रकृति को हमें देखते रहना है। सिर्फ देखना ही है । ज्ञाता - दृष्टा स्वभाव है आत्मा का ।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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