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________________ ११० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) आत्मा प्राप्त हो गया है तो इस प्रकृति को देखते ही रहना है आपको। आपका अहंकार चला गया, ममता चली गई, फिर बचा क्या? क्रोध-मानमाया-लोभ बिल्कुल हों ही नहीं, उसी को कहते हैं, ज्ञान। प्रकृति के फॉर्स के सामने..... प्रश्नकर्ता : प्रकृति का फॉर्स क्यों इतना ज़्यादा होता है कि देखना भी भुलवा देती है? दादाश्री : इतनी आत्मा की शक्ति कम है। शक्ति अधिक हो तो भले ही कितने भी फॉर्सवाली हो, तब भी वह जुदा हो जाता है। प्रश्नकर्ता : आत्मा की शक्ति तो सभी की एक सरीखी ही होती है न? दादाश्री : जितना आत्मारूप हो जाए, शक्ति भी उतनी ही होती है। खुद कितना आत्मारूप हुआ है? प्रश्नकर्ता : आत्मारूप किसे होना है? दादाश्री : खुद ही, खुद को ही होना है न! खुद को ही, सेल्फ को! जो आत्मा दिया हुआ है, उसी को! तुझे जो आत्मा दिया हुआ है, वही है मूल आत्मा। प्रश्नकर्ता : शक्तिवाला कैसे बनना है, वह समझ में नहीं आया? दादाश्री : आज्ञा का जितना पालन किया जाए, शक्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। यानी कि प्रकट होती जाती है। मूल आत्मा की शक्ति सभी में एक सरीखी होती है लेकिन आज्ञा पालन के अनुसार कम या ज्यादा प्रकट होती है। धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते अंत तक पहुँचती है। प्रश्नकर्ता : जब तक इस प्रकृति का फॉर्स रहता है, तब तक आज्ञा पालन भी नहीं करने देती। प्रकृति की वजह से ही यह सब है। खुद की इच्छा तो है। दादाश्री : प्रकृति की वजह से कोई परेशानी नहीं है। निश्चय किया
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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