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________________ १०८ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) उसे ऐसा रहना चाहिए कि ऐसा नहीं होना चाहिए।' यह सब उसे अच्छा नहीं लगना चाहिए। प्रश्नकर्ता : तब फिर उस ज्ञाता-दृष्टा की दिशा में आगे बढ़ता है। दादाश्री : वह आगे बढ़ता है, फिर उस दिशा में फुल साइट हो जाए तब ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है। प्रश्नकर्ता : वह फुल साइट है। उससे पहले अभिप्राय बदलना पड़ेगा। दादाश्री : लेकिन उसे हम ज्ञाता-दृष्टा ही मानते हैं। निश्चय की अपेक्षा से। यहाँ से बिगिनिंग होती है। प्रश्नकर्ता : जो प्रकृति में तन्मयाकार नहीं हुआ, क्या वही ज्ञाता दृष्टा है? दादाश्री : वही ज्ञाता-दृष्टा है। प्रकृति नचाए नाच प्रश्नकर्ता : तो ऐसा कह सकते हैं कि प्रकृति स्वभाव ही यह सब करवाता है। इच्छा नहीं हो फिर भी प्रकृति के करवाने से वह करता है। प्रकृति उससे करवाती है। दादाश्री : प्रकृति करवाती है इतना ही नहीं, बल्कि लटू को नचाती भी है। ये सभी जो लटू हैं न, टी-ओ-पी-एस, सभी नाचते हैं और प्रकृति नचवाती है, फिर वह बड़ा मंत्री हो या कोई और, लेकिन ये सभी नाचते हैं और अहंकार करते हैं कि 'मैं नाचा'। प्रश्नकर्ता : और वहाँ पर यदि ज्ञाता-दृष्टा भाव रखें तो? दादाश्री : तो कल्याण ही हो गया न! खुद के स्वभाव में आ गया ऐसा कहा जाएगा। खुद का स्वभाव 'कर्ता' है ही नहीं, 'ज्ञाता-दृष्टा' ही है लेकिन खुद को कर्ता मानकर इसमें फँस जाता है। बस इतना ही है और इसीलिए संसार कायम है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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