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________________ १०० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : तो दादा, सभी को ऐसा ही सारा झंझट करना पड़ेगा? दादाश्री : तभी सबकुछ शुद्ध होगा न! क्रमिक मार्ग में अहंकार बहुत अधिक शुद्ध करना पड़ता है। क्रोध-मान-माया-लोभ के परमाणु नहीं रहते क्रमिक में। अंदर जो आत्मा है, वह तो भगवान ही है। बाहर जो प्रकृति है, उसे वीतराग बनाओ। उसे वीतराग बना ही रहे हैं लोग। किस प्रकार आसानी से हो सकता है, उस मार्ग को जितना जानें उतना ही उसका निबेड़ा आएगा। इस प्रकृति को भी वीतराग बनाना है। भगवान महावीर की प्रकृति वीतराग ही थी। प्रकृति को अंत में वीतराग बनाना है लेकिन इस ज्ञान के मिलने के बाद हमें बनाना नहीं है, अपने आप हो ही जाएगी। मेरी आज्ञा में रहे न, तो प्रकृति वीतराग होती ही जाएगी। आपको आपका कोई कर्तापन नहीं है। करने से तो कर्ता बन जाएँगे फिर से। आज्ञा में रहने से होता ही जाएगा। सहजता में पहला कौन? प्रश्नकर्ता : ज्ञान हो जाने के बाद प्रकृति सहज होती जाती है या फिर जैसे-जैसे प्रकृति सहज होती जाए वैसे-वैसे ज्ञान प्रकट होता जाता है? इसका क्रम क्या है? दादाश्री : हम यह ज्ञान देते हैं, तब दृष्टि बदल जाती है और उसके बाद प्रकृति सहज होती जाती है। उसके बाद संपूर्ण सहज हो जाती है। आत्मा तो सहज है ही अगर प्रकृति भी बिल्कुल सहज हो जाए, तो बस हो गया। जुदा हो गए। और प्रकृति सहज इसका मतलब तो बाहर का भाग भी भगवान बन गया। अंदर का तो है ही। अंदर का तो सभी में है। प्रश्नकर्ता : हमारी प्रकृति कितनी असहज है.... दादाश्री : उसमें कोई बात नहीं। यह प्रकृति तो आपने मुझ से मिलने से पहले भरी थी।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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