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________________ [१.६] क्या प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है? ७५ का। हम जब ज्ञान देते हैं तो उस भाव को निकाल लेते हैं न! फिर अहंकार मृतप्राय रहता है। यानी कि भाव अहंकार खिंच जाता है। द्रव्य अहंकार रहता है उसके बाद। भाव प्रकृति खत्म हो जाती है और द्रव्य प्रकृति रहती है। प्रश्नकर्ता : दूसरों की नज़रों में तो अपनी प्रकृति वही की वही रही न? दादाश्री : वह तो कहीं बदलती नहीं है। लेकिन उन्हें ऐसा पता चल जाता है कि इसमें भाव नहीं है। इसलिए बहुत दु:ख नहीं होता सामनेवाले को। भाव रहे, तभी उसे दुःख होता है। हाव नहीं हो और सिर्फ भाव रहे तो भी बहुत दुःख होता है। स्वभाव प्रकृति का और कर्तापन खुद का पंखे में सिर्फ स्वभाव ही है। बदलता नहीं है यह। चाहे कैसे भी मंत्र फूंकें, तंत्र करें फिर भी कुछ नहीं होता जबकि इन मनुष्यों में तो प्रकृति का स्वभाव और कर्तापन दोनों रहते हैं। यह ज्ञान मिला है, इसलिए फिर कर्तापन निकल जाता है। सिर्फ स्वभाव ही बचा। कर्तापन कम हो जाता है। इसलिए हमें ऐसा लगता है कि 'ओहो! कितना बदलाव हो गया है ! इसका स्वभाव बदल गया!' प्रश्नकर्ता : कर्तापन छूट जाए तो उसके बाद स्वभाव नहीं बदलता? दादाश्री : नहीं। वह स्वभाव तो फिर धीरे-धीरे खत्म होता जाता है। हम बॉल डालते हैं, उसके जैसा है। ज़रा ऊँची उठती है, फिर उससे कम ऊँची होती है, फिर ऐसे करते-करते बंद हो जाती है। इस ज्ञान के बाद बस, कर्तापनवाला भाग ही बदल जाता है इसलिए हमें ऐसा लगता है कि यह बदल गया है। फिर भी उसका स्वभाव तो बदलता ही नहीं। कर्तापन बदलने से हमें ऐसा लगता है कि स्वभाव में बदलाव आ गया। हम उन सभी को स्वभाव मानते हैं। प्रकृति स्वभाव मानते हैं। प्रश्नकर्ता : यह ज़रा समझ में नहीं आया। यह क्या कहा आपने? दादाश्री : कर्तापन ही चला जाता है ज्ञान से, अतः सिर्फ प्रकृति
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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