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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) हैं। अतः अहंकार भीतर नहीं जाता। उसमें भी अहंकार नहीं जाता है न! इसमें पावर नहीं है। बगैर पावरवाला क्रोध हो तो वह जला नहीं देता, वह जलन नहीं पहुँचाता। ७४ सजीव और निर्जीव प्रकृति इस प्रकृति में हमें किस तरह से बरतना चाहिए इतना हम ज्ञान से कर सकते हैं। अपनी दखल नहीं हो तो प्रकृति बहुत काम नहीं कर सकती । प्रकृति कब काम करती है? खुद अंदर एकाकार रहे भ बहुत फॉर्सवाली होती है। खुद उससे अलग हो गया तो प्रकृति विलय ही होती रहती है निरंतर। निर्जीव हो गई है न ! जबकि अहंकारवाली प्रकृति तो सजीव है। प्रश्नकर्ता: दखल करने से सजीव हो जाती है ? दादाश्री : हाँ, वह तो आड़ापन भी करता है । अंदर भरा हुआ माल है, आड़ापन भी करता है। प्रश्नकर्ता : तो फिर ज्ञान लेने के बाद प्रकृति सुधर सकती है क्या? दादाश्री : हल्की हो जाती है। प्रकृति अपना काम किए बगैर तो रहती ही नहीं लेकिन जुदा पड़ सकती है । मृतपाय हो जाती है। ऐसी हो जाती है जैसे उसमें से जीव निकाल लिया हो । प्रश्नकर्ता : वह मृतप्राय हो चुकी है लेकिन उसका इफेक्ट तो रहेगा ही न? दादाश्री : इफेक्ट भी जब तक हम कच्चे हैं तभी तक । बाकी, हर एक जीव हावभाव से जीता है। उसमें से भाव निकाल लेना है, तो फिर हाव से रहेगा।‘हावभाव कैसे थे?' पूछते हैं । उसमें भाव अपना और हाव उसका, प्रकृति का! प्रश्नकर्ता : हाव का अर्थ क्या है? दादाश्री : भाव के अलावा बाकी का जो कुछ भी है उसका अर्थ है हाव। भाव, वह (व्यवहार) आत्मा का है। बाकी का सारा हाव प्रकृति
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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