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________________ [१.६] क्या प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है ? है न, वही पुरुषार्थ है। उसके अंदर ऐसा हो रहा हो, होता ही रहता है। 'पुरुषार्थ किया' वह तो हम सिर्फ शब्दों में बताने के लिए कहते हैं । वर्ना जब पुरुषार्थ हो तब हमें जानना है कि इस पुरुषार्थ से कुछ तो अच्छा होगा । प्रश्नकर्ता : वह भी उसके अंदर गुथा हुआ होता ही है | ६९ दादाश्री : हाँ। यह कहना कि 'पुरुषार्थ करते हैं' यह सब भी अहंकार है एक तरह का । प्रश्नकर्ता : अत: जब संयोग मिलते हैं, तब यह प्रकृति अपना स्वभाव बताती है। वापस कोई और संयोग मिल जाएँ तब वैसा बताती है। ऐसे करते-करते खत्म हो जाती है, ऐसा है? दादाश्री : हाँ, अगर उसका एन्ड आ चुका हो तो खत्म हो जाती है। प्रश्नकर्ता : लेकिन उसकी जो चीकणी (गाढ़) प्रकृति होती है, उसे भी संयोग मिलेंगे और वह प्रकृति ओपन होगी ही । उस समय क्या वह प्रकृति उतनी घिस जाती है ? दादाश्री : घिसती है न! घिसती ही जाती है, नियम ही ऐसा है ! प्रश्नकर्ता : यह ज्ञान लिया, लेकिन प्रकृति का स्वभाव तो बदलेगा ही नहीं न? दादाश्री : बदलता है न ! उसके कम - ज़्यादा परिणाम रहते ही हैं अंदर । अतः किसी में सहज रूप से बदल जाती है, बंद हो जाती है यह प्रकृति क्योंकि वह खत्म होने आई है जबकि वह समझता है कि मैंने पुरुषार्थ किया । यह प्रकृति कोई ऐसी नहीं है कि ऐसी ही रहती है, उसे जितना समझाएँ उस अनुसार चलती है । मूल प्रकृति बन चुकी है, पक्की हो चुकी है। उसके बाद और कुछ समझाया जाए तो बदल जाती है, लेकिन अंदर जो उसके बदलने का स्कोप है उतने में ही बदलती है, उससे आगे नहीं बदल सकती। आपने प्रकृति में ऐसा तय किया हो कि मुझे संतपुरुषों की
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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