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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : लोगों की प्रकृति को पहचानता है लेकिन खुद की प्रकृति को नहीं पहचानता, उसी वजह से मार खाता है। दादाश्री : अपने महात्मा तो खुद का जानते हैं, सभी कुछ जानते हैं, कोना-कोना जानते हैं। कौन से कोने में वीकनेस है, कौन से कोने में अच्छा है, वह सारा जानते हैं। अभी कई लोग जो गहराई में नहीं उतरे हैं वे नहीं जानते होंगे, लेकिन कितने ही समझदार लोग सभी कुछ जानते हैं और ये लोग बड़े-बड़े पत्र लिखते हैं, तो उनकी प्रकृति के बारे में सभी कुछ बता देते हैं। ये लोग अपनी खुद की आलोचना लिखते हैं न, तब कितना बड़ा पत्र लिखकर लाते हैं। प्रश्नकर्ता : प्रकृति एक तरह से हल्की होती जाती है, लेकिन दूसरी तरफ प्रकृति अधिक गाढ़ भी होती जाती है न? दादाश्री : गाढ़ होने का अब रहा ही नहीं न! वह तो जब तक अहंकार रहता है तभी तक गाढ़ होती है। अहंकार के बिना गाढ़ किस तरह हो सकती है?! यह तो, अहंकार की अनुपस्थिति में अपने आप ही हल्की होती जाती है, विलय होती जाती है। प्रश्नकर्ता : प्रकृति की आदत तो बदल जाएगी, लेकिन स्वभाव का क्या? दादाश्री : स्वभाव वगैरह तो बाकी सब खत्म हो जाएँगे। खुद को अगर स्वभाव बदलना हो न, तो सारा बदल सकता है और अगर खुद को नहीं बदलना हो तो तब तक बैठे रहेंगे सभी। मालिकीपने के बिना सहजता से रिपेयर डॉक्टर कहते हैं, 'आपका लिवर बहुत ही बिगड़ गया है।' मैंने कहा 'कुछ भी नहीं बिगड़ा है। आराम से रोटी के साथ मक्खन खाता हूँ।' और डॉक्टर तो मक्खन को छूता भी नहीं है। कहाँ गया तेरा बिगड़ा हुआ लिवर? अमरीका में डॉक्टर कहते हैं, 'ऑपरेशन करूँ?' 'अरे भाई, रहने दे न ऑपरेशन!' किसका कर रहा है यह तू? ये तो ज्ञानीपुरुष कहलाते हैं। जो
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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