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________________ [१.५] कैसे-कैसे प्रकृति स्वभाव दादाश्री : वह सारी जो है, वह प्रकृति ही है। अहंकार था न, वह तो साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स के आधार पर बना। वह इस स्पेस में आया, इसलिए स्वाद ऐसा हो जाता है। इस स्पेस पर आधारित है, उसका रूप-रंग वगैरह स्पेस पर आधारित है। इंसानों के चेहरे अलग-अलग दिखाई देते हैं, वह भी स्पेस की वजह से है। एक ही प्रकार के दिखेंगे तो क्या होगा? पति को ढूँढ ही नहीं पाएगी। इधर से उधर जाते रहेंगे। सभी एक जैसे दिखें तो फिर जब घर पर जाना हो तो घर मिलेगा ही नहीं। स्पेस अलग है इसलिए कितना अलग-अलग है। कितना सुंदर हुआ है! प्रश्नकर्ता : स्पेस अलग इसलिए स्वाद भी अलग उत्पन्न होते हैं, रूप-रस-गंध-स्पर्श सभी कुछ। दादाश्री : स्वाद वगैरह सभी चीजें, यह स्पेस अलग है इसलिए इस संसार की सभी अलग-अलग चीजें मिल जाती हैं हमें। अगर सभी लोग मीठे हों, तो वकील कहाँ से लाएँगे? तीखे लोग कहाँ से लाएँगे? फीके कहाँ से लाएँगे?! प्रकृति की पूरी-पूरी पहचान प्रश्नकर्ता : यह प्रकृति अपने स्वभाव में रहती है, खुद तो इससे भी अलग ही है न? दादाश्री : बिल्कुल अलग। हमें कोई लेना-देना है ही नहीं। जो बिल्कुल अलग रहता है, उसे तो कोई परेशानी नहीं है। इस व्यवहार में तो सामनेवाले की प्रकृति को पहचानकर रखना है, और क्या? स्वभाव। सामनेवाले का स्वभाव अर्थात् हमें ऐसा रहे कि 'यह भाई आया इसलिए अब झंझट नहीं है। यहाँ पर कोट-वोट सबकुछ सौंपकर आराम से, कोट अब झंझट नहीं है। यहाँ पर कोट-वोट सबकुछ सौंपकर आराम से, कोट हम जानते भी है। अगर पहचानते हो तो। और किसी को नहीं सौंपना, देखना।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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