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________________ २७४ आप्तवाणी-८ ...तो ज्ञानांतराय टूटेंगे प्रश्नकर्ता : यहाँ आपके पास बहुत लोग आते हैं, उसमें से किसीकिसीको ज्ञान लेने का मन नहीं होता, वह क्या है? इसका क्या कारण है? दादाश्री : वे उनके अंतराय कर्म हैं। वे अंतराय जब खत्म हो जाएँगे तब फिर ज्ञान लेने का मन होगा। तो अंतराय खत्म करने के लिए क्या करना चाहिए? कि या तो 'खुद' को तय ही कर लेना चाहिए कि आज अंतराय तोड़ ही डालने हैं, फिर जो होना हो सो हो, लेकिन अंतराय तोड़ ही डालने हैं। या फिर 'ज्ञानी' से कहना चाहिए कि, 'साहब, मेरे अंतराय तोड़ दीजिए', तो 'ज्ञानीपुरुष' उन्हें तोड़ देंगे। बाकी अंतराय कर्म तो, यदि भोजन सामने हो, फिर भी उसे खाने नहीं देते। भोजन तैयार हो, खाने की तैयारी कर रहा होता है, तभी कोई बुलाने आ जाता है कि, 'चलो, जल्दी चलो'। तो तैयार थाली छोड़कर भी जाना पड़े, वही अंतराय कर्म है। ...तब आत्मवर्तना बरतती है प्रश्नकर्ता : आपके द्वारा आत्मा की अनुभूति किस प्रकार से करवाई जाती है? दादाश्री : अभी कोई अनुभूति होती है या नहीं होती? यह ठंड लगे तो उसका अनुभव नहीं होता? गरमी लगती है तो उसका अनुभव नहीं होता? कोई गालियाँ देता है तो कड़वा रस उत्पन्न होता है, ऐसा अनुभव नहीं होता? आपको कौन-सा अनुभव चाहिए? प्रश्नकर्ता : आत्मा का अनुभव। दादाश्री : आत्मा का अनुभव मतलब क्या? परमानंद स्थिति, आनंद जाए ही नहीं, वही आत्मा का अनुभव है। प्रश्नकर्ता : वह किस तरह से मिलता है? दादाश्री : आपको उसका क्या करना है? आपको हमेशा के आनंद की ज़रूरत ही क्या है? और फिर वाइफ की, पैसे की ज़रूरत है या नहीं?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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