SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-८ २७३ 'आत्मा' को तो कुछ होगा ही नहीं न? लेकिन यह तो अनादि की भ्रांति 'उसे' यह सारी बात भुलवा देती है। ज्ञानी के प्रयोग से, आत्मा-अनात्मा भिन्न प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं 'आत्मा मुझसे एकदम अलग है', तो वह मुझे अभी तक भी एकदम स्पष्ट नहीं हो पाता। दादाश्री : अलग करने के बाद में फिर अलग होगा, नहीं तो तन्मयाकार है। 'हम' अलग कर देते हैं, 'हम' प्रयोग करते हैं तब अलग हो जाता है, नहीं तो तब तक नहीं हो सकता। यानी कि आपको ऐसा कहना है कि वास्तव में अलग तो है ही, लेकिन भ्रांति है, तब तक बँधा हुआ ही है। हम यहाँ पर ज्ञान देते हैं, उस दिन आत्मा और अनात्मा दोनों को जुदा कर देते हैं, फिर 'आपको' 'भगवान' का साक्षात्कार जाता ही नहीं और तब आपको आपके दोष दिखने लगते हैं, वर्ना तब तक दोष नहीं दिखते। और दोष दिखने के बाद दोष चले जाते हैं। जैसे-जैसे दोष दिखने लगते हैं, वैसे-वैसे चले जाते हैं सभी। ज्ञानप्राप्ति, भावना के परिणाम स्वरूप प्रश्नकर्ता : मेरे नसीब में क्या है? आपने जैसा बताया, वैसा ज्ञान मुझमें कब आएगा? वह अवधि बताइए। दादाश्री : वह तो आएगा, भावना की है तो आएगा न! पहले भावना होगी न, तभी आएगा, वर्ना भावना ही नहीं की होगी तो किस तरह से आएगा? प्रश्नकर्ता : मुझे तो ऐसा लगता है कि दिल्ली बहुत दूर है। दादाश्री : अरे, इस दुनिया में कुछ भी दूर होता ही नहीं। आत्मा ही पास में है, तो दिल्ली क्यों दूर होगी? आत्मा आपके खुद के नज़दीक है। आत्मा जो कि अप्राप्त वस्तु है, वह आपके खुद के पास में है, तो और कौन-सी वस्तु दूर कहलाएगी?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy