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________________ २३८ आप्तवाणी-८ क्रिया नहीं, भान बदलना है प्रश्नकर्ता : संसारी जिम्मेदारियों से बँधे हुए मनुष्य आत्मा किस तरह प्राप्त कर सकते हैं? दादाश्री : 'चंदूलाल' और 'आत्मा', दोनों बिल्कुल अलग ही हैं और अपने-अपने अलग गुणधर्म बताते हैं। वे यदि 'ज्ञानी' के पास से समझ लिए जाएँ तो संसार की जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह से निभाई जा सकेगी और 'यह' भी हो सकेगा। ज्ञानी भी खाते-पीते, नहाते-धोते सबकुछ करते हैं। आपके जैसी ही क्रियाएँ करते हैं, लेकिन 'मैं नहीं कर रहा हूँ', उन्हें ऐसा भान रहता है। और अज्ञान दशा में 'मैं कर रहा हूँ', ऐसा भान होता है। अर्थात् सिर्फ भान में ही फ़र्क है। आत्मविकास में नहीं होती, प्रतिकूलता कभी प्रश्नकर्ता : लेकिन अंतर की इच्छा हो, फिर भी आत्मविकास के कार्य में अधिक प्रतिकूलता क्यों महसूस होती है? दादाश्री : आत्मविकास के कार्य में प्रतिकूलता कभी भी होती ही नहीं। सिर्फ, उसकी अंतर की इच्छा ही नहीं होती। यदि अंतर की इच्छा हो न तो आत्मविकास के कार्य में प्रतिकुलता होती ही नहीं। यह तो 'उसे' इस दुनिया पर अधिक भाव है और आसक्ति है, इसलिए आत्मा में प्रतिकूलता लगती है। बाकी आत्मा प्राप्त करना तो सहज है, सरल है, सुगम है। आत्मा को खुद के गाँव जाने में देर ही कितनी लगेगी? मैंने किसान से पूछा था कि, 'इस बैल को यहाँ से खेत में ले जाते समय बैल का स्वभाव कैसा रहता है?' तब उसने कहा, 'हम खेत में ले जाते हैं, उस घड़ी धीरे-धीरे चलता है।' 'और वापस घर आते समय?' तब कहता है, 'घर पर? वह तो समझ जाता है कि घर पर जा रहे हैं, इसलिए तेज़ी से चलता है!' उसी प्रकार जब से आत्मा ने ऐसा जाना कि मोक्ष में जाना है, तब से तेज़ी से चलने लगता है। खुद के घर पर जाना है न? और बाकी सभी जगह पर तो धीरे-धीरे जबरन चलता है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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