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________________ आप्तवाणी-८ सब बेकार गई और दिमाग़ में अकड़ चढ़ी कि 'मैं कुछ जानता हूँ!' अरे, क्या जानता है तू? ठोकरें खा-खाकर तो दम निकल गया! ठोकरें खाता है तो दम निकल जाता है या नहीं निकल जाता? और मन में न जाने क्या मान बैठता है! १६३ प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा जो कहा है न कि जो प्रत्येक आत्मा है, वह एक ही आत्मा का आविर्भाव है, ब्रह्म का आविर्भाव है और बाद में फिर उसमें मिल जाता है। दादाश्री : किसने कहा है आपसे ऐसा? प्रश्नकर्ता : ऐसा पढ़ा है कि हर एक आत्मा जो है, वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। वह जब पूर्णता की प्राप्ति करता है न, तब ब्रह्म में विलीन हो जाता है। दादाश्री : तो फिर अपने हिस्से में क्या रहा? प्रश्नकर्ता : ब्रह्ममय हो जाते हैं न ! दादाश्री : उसमें अपने लिए क्या बचा लेकिन? प्रश्नकर्ता : हमें अपनापन खोना है और ईश्वरपन प्राप्त करना है I दादाश्री : हाँ, लेकिन यह तो अपने को ईश्वर में समाविष्ट हो जाना है, उससे अपने को क्या फ़ायदा मिला? इसके बजाय तो अपना यह स्वतंत्र व्यक्तित्व तो है, तो अभी लड्डू, पकौड़े सबकुछ मिलता है। सिर्फ दो गालियाँ दे देते हैं, उतना ही झंझट है न? और क्या झंझट है ? और ये लोग भी क्या कहते हैं कि, ‘अगर यहाँ के बजाय वहाँ पर सुख ज़्यादा हो, तभी हम मोक्ष में जाएँगे और वहाँ पर एकाकार हो जाना हो तो हमें नहीं जाना है।' तेज मिल जाए तेज में, तो खुद का क्या रहा? प्रश्नकर्ता : लेकिन ‘अहम् ब्रह्मस्म्'ि कहनेवाले तेज में मिल जानेवाली बात करते हैं कि मोक्ष अर्थात् तेज में मिल जाना। तो मोक्ष और तेज में मिल जाना, ये दोनों एक ही माने जाते हैं या क्या?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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