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________________ १६० आप्तवाणी-८ स्वभाव से एक ही हैं, लेकिन यह तो भेदबुद्धि से जुदाई लगती है। जब तक अपनी बुद्धि है, तभी तक यह दख़ल रहती है। बुद्धि खत्म हुई कि फिर अभेदता महसूस होती है। बुद्धि क्या करती है? भेद डालती है। यानी कि बुद्धि के चले जाने के बाद यह बात समझ जाएगा, ऐसा है। आप कहते हो उस प्रकार से यदि 'ऊपर' एकीकरण होनेवाला होता तो कोई मोक्ष में जाता ही नहीं न! यदि ऐसा ही होना होता, एक ही दीया हो जानेवाला होता, तो फिर वहाँ हमें क्या फ़ायदा? उसके बजाय यहाँ पर वाइफ डाँटेगी, लेकिन पकौड़े तो बनाकर देगी। यह क्या बुरा है? यानी कि वहाँ पर एक नहीं हो जाना है। वहाँ पर किसी तरह का दुःख नहीं है। वहाँ पर निरंतर परमानंद में रहना है। और फिर हर एक आत्मा स्वतंत्र है। एक स्वभाव के हैं, लेकिन हैं सभी अलग। यानी कि वहाँ पर यदि एक हो जानेवाला होता तो फिर यहाँ के आत्मा का क्या होगा? प्रश्नकर्ता : लेकिन चेतन एक प्रकार का हो तो उसका अस्तित्व अलग-अलग किस तरह से रह सकता है? दादाश्री : अलग ही रहता है तो फिर वह एक किस तरह से हो सकेगा? एक हो ही नहीं सकता! ये सोने की सभी सिल्लियाँ अलग-अलग होती हैं, लेकिन कहलाता है सारा सोना ही, इसी तरह से यह कहा जाता है कि आत्मा एक है। लेकिन यों इन सिल्लियों की तरह सब अलगअलग हैं। उन सभी में अन्य कोई फ़र्क नहीं है। यह तो हमें बुद्धि से उल्टे पासे दिखते हैं। बाकी वहाँ पर सिद्ध स्थिति में सभी अपने-अपने सुख में ही रहते हैं। भेदबुद्धिवाले को यह बात समझने में बहुत दुविधा होती है। अनेक होने के बावजूद एक है, यह बात बहत समझने जैसी है और बहुत सूक्ष्म बात है। नहीं तो वहाँ पर यदि सभी एक हो जाते, तो उसमें हमें क्या मिला? और ऐसा मैंने भी बचपन में सुना था कि दीये के साथ दीया मिल जाता है। तब उससे मुझे क्या मिला? हमें जो मोक्ष का सुख चाहिए, और यदि हमें किसी में समा जाना हो, तो उससे हमें क्या सुख मिला? भगवान के
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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