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________________ उलझन में भी शांति! (३) ...फिर परतंत्रता आती ही नहीं! प्रश्नकर्ता : उलझनों में से बाहर निकल चुके लोग फिर से उलझन में फँस सकते हैं क्या? दादाश्री : नहीं, फिर यदि खुद की इच्छा हो और फँसना हो, तो फँसेगा। खुद की इच्छा हो, तो वह भी एक हद तक ही। बाद में खुद उस ओर के रास्ते पर जाता है, स्वतंत्रता में जाता है। उसके बाद परतंत्र होना चाहे, फिर भी नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। नहीं तो, उलझनों में उलझा जीवन! मनुष्यजन्म के एक मिनट की क़ीमत तो कही जा सके वैसा नहीं है, इतनी अधिक क़ीमत है। यह हिन्दुस्तान के मनुष्यों की बात है। हिन्दुस्तान के लोगों को क्यों दूसरों से अलग मानते हैं कि, इन लोगों की बिलीफ में पुनर्जन्म आ चुका है। हिन्दुस्तान के अलावा, बाहर के लोगों की बिलीफ में पुनर्जन्म नहीं आया है। इसलिए हिन्दुस्तान के इंसान के एक मिनट की भी बहुत क़ीमत है, लेकिन यह तो यों ही बीत जाता है, पूरे दिन बगैर भान के यों ही बेभानता में बीत जाता है। आपका कोई क्षण बेकार गया है? प्रश्नकर्ता : बहुत सारे बेकार गए हैं। दादाश्री : ऐसा? तो काम में कितने आए? किसमें काम आए? इंसान पूरे दिन उलझनों में उलझता रहता है। साधु-संन्यासी सभी उलझे रहते हैं। बड़ा राजा हो या वकील हो, लेकिन वह भी उलझा रहता है, जिसके पास जायदाद कम हो वह कम उलझा रहता है और अधिक जायदादा हो तो अधिक उलझा रहता है, यानी कि यह पूरा संसार उलझन ही है। तो इस उलझन में से
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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