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________________ २३८ आप्तवाणी-७ का और बच्चे का स्वार्थ ही है न? लेकिन ज़रूरत के मुताबिक परिणाम को स्वार्थ नहीं कहते, एक्सेस हो जाए तभी स्वार्थ कहलाता है। उसी प्रकार जब एक्सेस हो जाए तब आग्रह कहलाता है। ज़रूरत के मुताबिक हो, तो कोई आपत्ति नहीं उठाएगा न? इस दाल में कोई चीज़ ज़रूरत के मुताबिक डाली हो तो कोई आपत्ति उठाएगा? इस जगत् में सभी लोगों को स्वार्थी नहीं कहते हैं। वास्तव में तो यह पूरा जगत् स्वार्थी ही है, लेकिन वह बिलीफ में है इसलिए वह स्वार्थ कहलाता ही नहीं है, लेकिन एक्सेस होते ही वह स्वार्थ कहलाता है। और वास्तव में स्वार्थ तो कौन सा है? कि खुद खुद के लिए स्वार्थ रखे, स्वयं शुद्धात्मा का और वह भी 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान हो जाए, तब वह वास्तव में स्वार्थ कहलाएगा। यह तो सब परार्थ कहलाता है। स्वार्थ से यहाँ पर सब इकट्ठा करता है, फिर अर्थी निकलती है। प्रश्नकर्ता : स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ को ज़रा ठीक से समझाइए। दादाश्री : ऐसा है न, कि यहाँ पर आपके गाँव में कोई स्वार्थी व्यक्ति है क्या? प्रश्नकर्ता : सचमुच के स्वार्थी नहीं मिलते। दादाश्री : नहीं, वे भी सचमुच के स्वार्थी नहीं हैं। जब तक 'मैं चंदूभाई हूँ,' चंदूभाई ही आपका स्वरूप है, तब तक आप स्वार्थी माने ही नहीं जा सकते और आप जो-जो करते हो वह सारा परार्थ ही है। 'जो मरण आ जिंदगी नी छे अरे छल्ली दशा, (देख मृत्यु, इस जिंगदी की हे रे अंतिम दशा) तो परार्थे वापरवा मां, आ जीवन ना मोह शा?' (तो परार्थ के लिए इसका उपयोग करने में, इस जीवन का मोह क्या?)
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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