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________________ आप्तवाणी-७ गए हों और अपनी बस वहाँ से निकल जाती है ! वे देखें और कहेंगे भी सही कि, 'अरे, पाँच मिनट इंतज़ार किया होता तो शिकार ऐसे हाथ में से नहीं गया होता?' ९४ इस प्रकार यों किसी को कुछ भी करने की सत्ता है ही नहीं। इस दुनिया में घबराने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। आप मालिक ही हो। खुद अपने आपके आप मालिक ही हो और ये जो आपको अड़चनें ( परेशानी, मुश्किलें) आती हैं, वह सारा आपका ही हिसाब है। आपने जो उलझाया है, उस उलझन का फल आया है। आपने उलझाया हो तो उसका फल आएगा या नहीं आएगा? फिर उसमें और किसी का क्या गुनाह? अतः हमें वह फल शांतिपूर्वक भोग लेना चाहिए और फिर से ऐसे नहीं उलझाएँ, उतना देख लेना चाहिए। वर्ना अपने में किसी की दख़ल नहीं है, भगवान की भी दख़ल नहीं है। जेबकतरे की भी दख़ल नहीं है। जो जेब काटता है, वह तो अपना हिसाब चुका रहा है । बस आगे चली गई और शायद अगर लुटेरे मिलें भी तो वह तो हिसाब होगा तो मिलेंगे, वर्ना किस तरह मिलेंगे? फिर भी उद्धत भी नहीं हो जाना चाहिए। अब शायद वह पुलिसवाला कहे और सभी महात्मा भी कहें तब मैं अकेला ऐसा नहीं कहूँगा कि, ‘अभी ही चलो।' मैं, 'सभी एविडेन्स क्या हैं' वह देख लूँगा । यदि सभी कहें कि, 'नहीं जाना है।' तब मैं कहूँगा कि, 'हाँ ठीक है, जाना मुलतवी करो ।' किसी जगह पर पकड़ नहीं पकड़नी चाहिए । जहाँ निरंतर भय! वहाँ निर्भयक्षेत्र कौन सा ? यह जगत् भय रखने जैसा है ही नहीं, बिल्कुल निर्भय होकर घूमने जैसा है और जो लोग भय रखते हैं न, उन्हें तो संपूर्ण जागृति रहती है, उन्हें यह जगत् निरंतर प्रतिक्षण भयवाला ही दिखता है। हमें तो एक भी क्षण निर्भयतावाली नहीं दिखती, ऐसा निरंतर भयवाला जगत् है। लेकिन वह भय किसलिए? आप चंदूभाई हो
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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