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________________ आप्तवाणी-६ दादाश्री : हाँ, बुद्धि के आशय के अनुसार काम करता है ! दुनिया में नहीं हो वैसा भी भोगना पडता है। यदि भोगने का भाव किया हो तो! और उस समय वापस वैसा मंजूर भी हो जाता है, क्योंकि बुद्धि के आशय को फिर पुण्य का आधार है। इसलिए 'मैं यह हूँ', 'यह मेरा है' ऐसी प्रतिष्ठा से पूरे जन्म की 'बॉडी', यह मूर्ति उत्पन्न होती है और भाव करते समय बुद्धि का आशय कैसा था, किस-किसमें था, वह सब प्रिन्ट हो जाता है। हरएक को बुद्धि का आशय होता है। प्रश्नकर्ता : बुद्धि का आशय तो हमेशा बदलता रहता है? दादाश्री : हाँ, बुद्धि का आशय बदलता है, उस अनुसार सबकुछ वहाँ पर प्रिन्ट होता जाता है। प्रश्नकर्ता : भाव और बुद्धि के आशय में क्या फर्क है? दादाश्री : भाव, वह तो यहाँ पर लोगों को ऐसे काँच डाल देता है। उसके बाद उसकी आँखें बहुत अच्छी हों, उसके बावजूद भी जो दिखता है वह भाव कहलाता है और वह वैसे भावों के अनुसार चलता रहता है। इसलिए फिर उस पर से यह सारा संसार खड़ा हो जाता है! प्रश्नकर्ता : काँच में से जो दिखता है वह भाव है, तो काँच, वह द्रव्यकर्म है? दादाश्री : हाँ, जो काँच है वह द्रव्यकर्म है। वे जो काँच आपको लगाए हैं, वैसे हर किसी के अलग-अलग होते हैं। द्रव्यकर्म हर एक का अलग-अलग होता है। लोग द्रव्यकर्म को क्या समझते हैं कि जो दिखा है, जैसा दिखा, वह भावकर्म है, उस भावकर्म का जो फल आया, उसे द्रव्यकर्म कहते हैं। भावकर्म से यह क्रोधी हो गया, उसे वे द्रव्यकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्म की बात बहुत समझने जैसी है, और बुद्धि का आशय अलग चीज़ है। प्रश्नकर्ता : परंतु बुद्धि का आशय और भाव में क्या फर्क है?
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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