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________________ आप्तवाणी-६ तैयार करते हैं। फिर भाव क्या-क्या होते हैं? तब कहे, 'बुद्धि के आशय के अनुसार सारा चित्रण हो जाता है। बुद्धि के आशय के बाद भीतर परिवर्तन होता रहता है।' प्रश्नकर्ता : प्रतिष्ठा कौन करता है? दादाश्री : वह अहंकार करता है कि, 'यह मैं हूँ, मैं ही चंदूभाई हूँ और यह मेरा चाचा है, मामा है।' प्रश्नकर्ता : यह शराब पीता है, यह पूजा करता है, वह क्या है? दादाश्री : शराब पीता है, वह तो भीतर भाव किए हों न कि शराब के बिना तो चलेगा ही नहीं, इसलिए शराब पीता है और फिर वह नहीं छटती, यानी प्रतिष्ठा नहीं करता परंतु ऐसा है कि बुद्धि का आशय बोलते समय कैसा होता है, वह अंदर प्रिन्ट हो जाता है। बुद्धि के आशय को समझना बहत ही ज़रूरी है, हमें यहाँ दोनों खत्म हो जाते हैं। यहाँ तो प्रतिष्ठा होनी ही बंद हो जाती है। प्रश्नकर्ता : बुद्धि का आशय जरा विशेष रूप से समझाइए न, दादा! दादाश्री : बुद्धि का आशय अर्थात् 'मुझे बस चोरी करके ही चलाना है, काला बाज़ार करके ही चलाना है।' कोई कहेगा, 'मझे चोरी कभी भी नहीं करनी है।' कोई कहता है, 'मुझे ऐसा भोगना है।' तो भोगने के लिए एकांतवाली जगह भी तैयार कर देता है। उसमें फिर पाप-पुण्य काम करता है। जैसा सबकुछ भोगने की इच्छा की होगी, वैसा सबकुछ उसे मिल भी जाता है। मानने में नहीं आए, वैसा सबकुछ भी उसे मिल जाता है। क्योंकि उसके बुद्धि के आशय में था। और यदि पुण्य होगा तो कोई उसे पकड़ भी नहीं सकेगा। चाहे जितने पेहरे लगाए हों, तब भी! और पुण्य पूरा हो जाए तब यों ही पकड़ा जाता है। छोटा बच्चा भी उसे ढूँढ निकालता है कि 'ऐसा घोटाला है इधर!' बुद्धि का आशय और भाव प्रश्नकर्ता : तो इसमें भोगने का जो नक्की करते हैं, वहाँ क्या बुद्धि का आशय काम करता है?
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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