SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ आप्तवाणी-६ बैठे होते हैं, तब (आत्मा में) बिल्कुल एकाकार नहीं हुआ जाता और रास्ते में अचानक ही एकाकार हो जाते हैं और आनंद-आनंद हो जाता है। तो वह किस प्रकार से आया? वह उदय से आया? दादाश्री : यह भी उदय से आता है और वह भी उदय से आता है। दोनों उदय से ही आते हैं। प्रश्नकर्ता : उसका अर्थ यह है कि पराक्रम भाव बिल्कुल अलग है? दादाश्री : हाँ, पराक्रम भाव अलग ही है। पराक्रम में खुद को कुछ भी नहीं करना होता। खुद का भाव, पराक्रम भाव उत्पन्न होता है। इसलिए फिर प्रज्ञा उस भाव के अनुसार सबकुछ कर देती है। प्रश्नकर्ता : पराक्रम भाव अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा भाव? दादाश्री : पराक्रम भाव यानी क्या? 'मुझे पराक्रम भाव में आना है' ऐसा भाव उन्हें नहीं होता। मूल जो भाव होते हैं, यह पराक्रम भाव उससे अलग चीज़ है। यह 'एलर्टनेस' है। मुझे 'एलर्टनेस' में ही रहना है। ऐसा जिसे नक्की हो, उसके लिए फिर प्रज्ञा सभी व्यवस्था कर देती है। प्रश्नकर्ता : पराक्रम भाव क्या स्ट्रोंग निश्चय में आता है? दादाश्री : हाँ, और क्या, निश्चय अपना होना ही चाहिए न? मुझे स्वभाव में ही रहना है। फिर जो हो सो। उसे फिर कौन रोकनेवाला है? फिर प्रज्ञाशक्ति उसमें ज़ोर लगाएगी। उसके भीतर अज्ञाशक्ति भी अपना ज़ोर लगाती है। परंतु अंत में अज्ञाशक्ति हार जाएगी, क्योंकि भगवान इनके पक्ष में है।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy