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________________ २२४ आप्तवाणी-६ अच्छा और यह खराब। फिर खुद के प्रियजन कहें तो उसकी बिलीफ़ अधिक मज़बूत होती जाती है! उसी तरह ये अभिप्राय कोई देता नहीं है, लेकिन लोकसंज्ञा से अभिप्राय बन जाते हैं कि अपने बगैर कैसे होगा? ऐसा हम नहीं करेंगे तो कैसे चलेगा? ऐसी संज्ञा बैठ (फिट हो) गई है, इसलिए फिर हमने आपको 'व्यवस्थित' कर्ता है, ऐसा ज्ञान दिया, इससे आपका अभिप्राय बदल गया कि वास्तव में हम लोग कर्ता नहीं है, 'व्यवस्थित' कर्ता है! लोकसंज्ञा से अभिप्राय डल गए हैं, वे ज्ञानी की संज्ञा से तोड़ डालने हैं! सब से बड़ा अभिप्राय, 'मैं कर्ता हूँ' वह तो जिस दिन ज्ञान दिया, उस दिन 'ज्ञानीपुरुष' तोड़ देते हैं। लेकिन हर किसी की प्रकृति के अनुसार अन्य छोटे-छोटे, अभिप्राय बन जाते हैं। कुछ के तो बहुत बड़े अभिप्राय होते हैं, वे अटकण कहलाते हैं। ऐसे तो करना ही पड़ता है न! वे सारे अभिप्राय अभी तक रहे हुए हैं वे सभी अभिप्राय निकाल देंगे न, तो वीतराग मार्ग पूरी तरह खुल जाएगा। जब 'मगनभाई' यहाँ रूम में प्रवेश करें कि तुरंत ही आपको उसकी तरफ अभाव उत्पन्न हो जाता है, किसलिए? क्योंकि 'मगनभाई' का स्वभाव ही नालायक है, ऐसा अभिप्राय बन गया है। इसलिए 'मगनभाई' यदि कुछ अच्छा बताने आएँ, फिर भी खुद उसे टेढ़ा मुँह दिखाता है। वे अभिप्राय बन गए हैं, उन सबको निकालना तो पड़ेगा ही न? । अर्थात् किसी भी प्रकार के अभिप्राय नहीं रखने हैं। जिसके लिए खराब अभिप्राय बन गए हों, वे सब तोड़ देना। ये तो सब बेकार के अभिप्राय बन जाते हैं, गलतफहमी से बन जाते हैं। कोई कहेगा कि, 'अपना अभिप्राय उठ गया तो भी उसकी प्रकृति क्या बदल जानेवाली है?' तब मैं क्या कहता हूँ कि 'प्रकृति भले न बदले, उससे हमें क्या मतलब?' तो कहेगा कि, 'फिर हमारे बीच टकराव तो रहेगा ही न?' तो मैं क्या कहता हूँ कि, 'नहीं, आपके जैसे परिणाम सामनेवाले के लिए होंगे, वैसे ही परिणाम सामनेवाले के हो जाएँगे।' हाँ, आपका उसके
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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