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________________ आप्तवाणी-६ २२३ प्रश्नकर्ता : वह तो, दोनों बारी-बारी से होते हैं। हमें 'सूटेबल' हो तो राग होता है और 'ऑपोज़िट' हो तो द्वेष होता है। दादाश्री : यानी कि वह सब राग-द्वेष के अधीन है। अभिप्राय एकाकार होते ही नहीं न! शायद ही कोई ऐसा पुण्यशाली होगा कि जिसकी स्त्री कहे कि 'मैं आपके अधीन रहूँगी, चाहे कहीं भी जाओगे, चिता में जाओगे तब भी आपके ही अधीन रहूँगी!' वह तो धन्यभाग ही कहलाएँगे न! परंतु ऐसा किसी को ही होता है ! यानी इसमें मज़ा नहीं है। हमें कोई नया संसार खड़ा नहीं करना है। अब मोक्ष में ही जाना है। जैसे-तैसे करके फायदा-नुकसान के सभी खातों का निकाल करके खाता बंद करके हल ला देना है! यह वास्तव में मोक्ष का मार्ग है! किसी काल में कोई नाम न दे, ऐसा यह ज्ञान दिया हुआ है ! परंतु यदि आप जान-बूझकर उल्टा करो, तो फिर बिगड़ेगा! फिर भी कुछ समय में हल ला ही देगा! अर्थात् एक बार यह जो प्राप्त हो गया है, इसे छोड़ने जैसा नहीं है! लोकसंज्ञा से अभिप्राय अवगाढ़ पूरा जगत् अभिप्राय के कारण चल रहा है। अभिप्राय वस्तु तो ऐसी है न कि अपने यहाँ आम आया, और सभी चीजें आई, अब इन्द्रियों को हमारी प्रकृति के अनुसार बहुत पसंद आता है और इन्द्रियाँ सब खाती हैं, ज़्यादा खा जाती हैं, परंतु इन्द्रियों को ऐसा नहीं है कि अभिप्राय बनाएँ। यह तो बुद्धि अंदर नक्की करती है कि यह आम बहुत अच्छा है ! इसलिए उसका आम के प्रति अभिप्राय बन जाता है। फिर दूसरों को ऐसा कहता भी है, 'भाई, आम जैसी कोई चीज़ नहीं दुनिया में।' फिर उसे याद भी आता रहता है, खटकता रहता है कि आम नहीं मिल रहा। इन्द्रियों को और कोई आपत्ति नहीं है, वे तो किसी दिन आम आए तो खा लेती हैं, नहीं आए तो कुछ नहीं। ये अभिप्राय ही हैं। वे ही सब परेशान करते हैं ! अब इसमें सिर्फ बुद्धि काम नहीं करती ! लोकसंज्ञा इसमें बहुत काम करती है! लोगों ने जो माना हुआ है, उसे पहले खुद बिलीफ़ में रखता है, यह
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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