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________________ २०६ आप्तवाणी-६ प्रश्नकर्ता : हम दर्पण में न करें और ऐसे ही मन के साथ अकेलेअकेले बात करें, तब वह नहीं हो सकता? दादाश्री : नहीं, वह नहीं होगा। वह तो दर्पण में आपको चंदूभाई दिखने चाहिए। अकेले-अकेले मन में करोगे तो नहीं आ पाएगा। अकेलेअकेले करना, वह तो 'ज्ञानीपुरुष' का काम। परंतु आपको तो ऐसे ही बालभाषा में सिखलाना पड़ेगा न? और यह दर्पण है तो अच्छा है, नहीं तो लाख रुपये का दर्पण खरीदकर लाना पड़ता। ये तो सस्ते दर्पण हैं! ऋषभदेव भगवान के समय में अकेले सिर्फ भरत चक्रवर्ती ने ही शीशमहल बनवाया था! और अभी तो इतने बड़े-बड़े दर्पण सब जगह दिखते हैं! यह सब परमाणु की थ्योरी है। परंतु यदि दर्पण के सामने बैठाकर करो न तो बहुत काम निकल जाए, ऐसा है। परंतु कोई करता नहीं है न? हम कहें तब एक-दो बार करता है और फिर वापस भूल जाता है! अरीसाभवन में केवलज्ञान! भरत राजा को, ऋषभदेव भगवान ने 'अक्रम ज्ञान' दिया और अंत में उन्होंने अरीसाभवन (शीशमहल) का आसरा लिया, तब जाकर उनका काम हुआ। अरीसाभवन में अंगूठी निकल गई थी, उँगली को खाली देखी तब उन्हें हुआ कि सभी उँगलियाँ ऐसी दिखती हैं और यह उँगली क्यों ऐसी दिख रही है? तब पता चला कि अंगूठी निकल गई है, इसलिए। अंगूठी के कारण उँगली कितनी सुंदर दिख रही थी, फिर चला अंदर तूफान! वह ठेठ 'केवलज्ञान' होने तक चला! विचारणा में उतर गए कि अंगूठी के आधार पर उँगली अच्छी दिख रही थी? मेरे कारण नहीं? तो कहा कि तेरे कारण कैसा? वह फिर 'यह नहीं है मेरा, नहीं है मेरा, नहीं है मेरा' ऐसे करते-करते 'केवलज्ञान' प्राप्त किया! अर्थात् हमें अरीसाभवन का लाभ लेना चाहिए। अपना 'अक्रम विज्ञान' है। जो कोई इसका लाभ लेगा, वह काम निकाल लेगा, परंतु इसका किसी को पता ही नहीं चलता न? भले ही आत्मा नहीं जानता हो, फिर भी अरीसाभवन की सामायिक ज़बरदस्त हो सकती है।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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