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________________ आप्तवाणी- -६ १९३ पूरी दुनिया के तूफ़ान को खत्म कर दे, ऐसा यह विज्ञान है, लेकिन हम यदि इसमें स्थिर रहें तो ! हम यदि ज्ञान में स्थिरता पकड़ लें तो कोई नाम नहीं देगा। यह तो जागृति का मार्ग है, हमें जागृत रहना है। सामनेवाले को दुःख हुआ, उसका प्रतिक्रमण करने का हमारे पास इलाज है। और क्या करना है? बाकी तो ये देह, मन, वाणी सब 'व्यवस्थित' के ताबे में हैं। अप्रतिक्रमण दोष, प्रकृति का या अंतराय कर्म का ? प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण नहीं हो पाते, यह प्रकृतिदोष है या यह अंतरायकर्म है? दादाश्री : यह प्रकृतिदोष है । और यह प्रकृतिदोष सभी जगह पर नहीं होता। कुछ जगह पर दोष हो जाते हैं और कुछ जगह पर नहीं होते । प्रकृतिदोष की वजह से प्रतिक्रमण नहीं हो पाएँ, उसका हर्ज नहीं है । हमें तो इतना ही देखना है कि अपना भाव क्या है? हमें और कुछ नहीं देखना है। आपकी इच्छा प्रतिक्रमण करने की है न? प्रश्नकर्ता: हाँ, पूरी-पूरी। दादाश्री : इसके बावजूद यदि प्रतिक्रमण नहीं हो पाएँ, तो वह प्रकृतिदोष है। प्रकृतिदोष में आप जोखिमदार नहीं हो। किसी समय प्रकृति बोलती भी है और न भी बोले, यह तो बाजा है । बजे तो बजे, नहीं तो नहीं भी बजे, इसे अंतराय नहीं कहते। I 44 कई लोग मुझे कहते हैं कि, 'दादा, समभाव से निकाल करने जाता हूँ, परंतु हो नहीं पाता।' तब मैं कहता हूँ, “ अरे भाई, निकाल नहीं करना है! तुझे समभाव से निकाल करने का भाव ही रखना है। समभाव से निकाल हो जाए या नहीं भी हो पाए। वह तेरे अधीन नहीं है तू मेरी आज्ञा में रह न! उससे तेरा काफी कुछ काम पूरा हो जाएगा, और तो वह 'नेचर' के अधीन है । " पूरा नहीं हो पा हम तो इतना ही देखते हैं कि 'मुझे समभाव से निकाल करना है',
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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