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________________ आप्तवाणी-६ १८१ उत्पन्न हुए। संयोग मिला कि विचार उत्पन्न होते हैं। यह 'देखत भूली' सिर्फ दिव्यचक्षु से ही टले, ऐसा है। दिव्यचक्षु के बिना नहीं टल सकती। प्रश्नकर्ता : यह तो संयोगों को टालने की बात हुई न? इसका मतलब एक ही जगह पर बैठे रहें? दादाश्री : नहीं, अपना विज्ञान तो अलग ही तरह का है, हमें तो 'व्यवस्थित' में जो हो वह भले हो, परंतु वहाँ पर आज्ञा में रहना चाहिए। जहाँ पर अंगारे हों, वहाँ पर आज्ञा में नहीं रहते? अंगारों को भूल से भी नहीं छूते न? ऐसा ही उसे यहाँ पर विषय के बारे में सँभाल लेना चाहिए कि ये अंगारे हैं, प्रकट अग्नि है। इस जगत् में जो वस्तु आकर्षणवाली है वह प्रकट अग्नि है, वहाँ सावधान हो जाना चाहिए। प्रश्नकर्ता : उसका अर्थ यह कि हम जो देखते है, वह अपना नहीं है फिर भी वहाँ पर भाव हो जाता है, वह नहीं होना चाहिए, ऐसा? दादाश्री : अपना वह है ही नहीं, पुद्गल अपना होता ही नहीं। यह अपना पुद्गल 'अपना' नहीं है, तो उसका पुद्गल अपना कैसे होगा? आकर्षण, वह प्रकट अग्नि है। भगवान ने आकर्षण को तो मोह कहा है। मोह का मूल ही आकर्षण है। आप तो सामनेवाले में शुद्धात्मा देखते हो, परंतु फिर वापस भाव उत्पन्न हो गया हो, आकर्षण हो गया हो तो प्रतिक्रमण करने से उखड़ जाएगा। ऐसा सबकुछ जानकर लक्ष्य में रखना चाहिए न! दवाई की जानकारी तो रखनी चाहिए न कि इसकी क्या दवाई यह विज्ञान है। संपूर्णभाव से विज्ञान है। अंगारों को क्यों नहीं छूते? वहाँ क्यों चौकन्ने रहते हो? क्योंकि उसका फल तुरंत ही मिलता है। और विषय में तो लालच हो जाता है, इसलिए लालच से फँस जाता है। इन अंगारों को छूना अच्छा है, उसका उपाय है। फिर कुछ भी चुपड़ें तो ठंडा पड़ जाता है। परंतु विषय तो अभी लालच में फँसाकर और वापस अगला जन्म दिखाएगा। यह तो अपने ज्ञान को भी धक्का मारे ऐसा है। इतना बड़ा विज्ञान है। इसे भी धक्का मारे ऐसा है, इसलिए सावधान रहना।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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