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________________ १६२ आप्तवाणी-६ प्रश्नकर्ता : मैं शरीर के साथ एकाकार हो गया। इसलिए मुझे २५ प्रतिशत के बदले १०० प्रतिशत दुःख महसूस होता है। दादाश्री : पूरा संसार 'मैं ही चंदूभाई हूँ' ऐसा ही समझता है। यह तो, ऐसा जुदा व्यवहार, आप अब सीखे! प्रश्नकर्ता : लेकिन यदि अब कहें 'दु:ख चंदूभाई को है' तो दुःख २५ प्रतिशत का २५ प्रतिशत ही रहेगा न? दादाश्री : हाँ, फिर बढ़ेगा नहीं। नहीं तो १०० प्रतिशत हो जाता है। यह तो लोगों को भान ही नहीं है। वे दुःख को बल्कि बढ़ा देते हैं। खुद के दु:खों का वर्णन करके दुःख को बल्कि बढ़ा देते हैं! लोग चिंता करते रहते हैं न? यह चिंता करने की भी हद होती है। सभी कहीं 'ज्ञानी' नहीं होते कि जिन्हें चिंता होती ही नहीं। यानी उसका कोई नियम होगा या नहीं होगा? कब तक चिंता करनी? चिंता यानी चिंतना करते रहना कि अब क्या करूँगा? यह तो भगवान को बुरा-भला कहते हैं, कुदरत को बुरा-भला कहते हैं ! फिर न्याय जैसा रहा ही कहाँ? ढाई वर्ष का बच्चा, छोटा बच्चा मर जाए, तो भी रोते हैं और बाईस वर्ष का विवाहित मर जाए, तो भी रोते हैं, और पैंसठ वर्ष का बूढ़ा मर जाए, तो भी रोते हैं! तब तुझे इसमें क्या समझ आया? कहाँ रोना है और कहाँ पर नहीं रोना, वह समझता ही नहीं! प्रश्नकर्ता : इस प्रकार बुद्धि का उपयोग तो कभी हुआ ही नहीं। दादाश्री : वह नहीं होगा, तब तक जगत् में सुख किस तरह हो पाएगा? मनुष्यों को, जानवरों को सुख ही है। मनुष्यों को कोई दुःख होता होगा? सिर्फ इतना ही है कि इन्हें भोगना नहीं आता। यह बात सभी मनोवैज्ञानिकों को देनी है। इससे भी आगे की बात है। 'यह' 'बुलबुला' नहीं फूटे, तब तक काम निकलेगा। फूट गया तो खत्म हो गया!
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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